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अनेकान्त दृष्टि ६३ मैं आप से कह रहा था कि स्याद्वाद, समन्वयवाद और अपेक्षावाद अनेकान्त दृष्टि-जैन दर्शन का हृदय है। विश्व को एक अनुपम और मौलिक देन है। मतभेद, मताग्रह और वाद-विवाद को मिटाने में अनेकान्त एक न्यायाधीश के समान है। विचार क्षेत्र में, जिसे अनेकान्त कहा है, व्यवहार क्षेत्र में वह अहिंसा है। इस प्रकार "आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त" यह जैन धर्म की विशेषता है। क्या ही अच्छा होता? यदि आज का मानव इस अनेकान्त दृष्टि को अपने जीवन में, परिवार में, समाज में और राष्ट्र में ढाल पाता, उतार पाता?
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