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१०४ अमर भारती
वाद के आधार पर यदि भौतिक विकास होता है, तो उससे जीवन में कोई खतरा नहीं होगा । इस दृष्टि से व्यक्ति विकास में सामाजिक धरातल आवश्यक है ।
प्रश्न- धर्म में वैराग्य का क्या स्थान है ? और विरागी व्यक्ति का संसार के प्रति क्या दृष्टिकोण रहता है ?
समाधान -- वैराग्य के तीन रूप हैं - दुःख-मूलक, मोह-मूलक और ज्ञान मूलक । विशुद्ध वैराग्य वही है, जिसका मूल आधार ज्ञान है, विवेक है । दुःख मूलक और मोह मूलक वैराग्य में पतन का भय बना रहता है ।
मेरा अपना दृष्टिकोण यह है कि धर्म को जीवित रखने के लिए वैराग्य परम आवश्यक तत्व है । क्योंकि उसके बिना जीवन स्थिर नहीं हो पाता । वैराग्य संसार से नहीं, सांसारिकता से होना चाहिए । संसार बुरा नहीं, सांसारिकता बुरी बला है, जिस से व्यक्ति का निरन्तर पतन होता रहता है । विरागी का संसार के प्रति यही विशुद्ध दृष्टिकोण बना रहना चाहिए ।
प्रश्न- धनागम पुण्य रूप है, या पाप रूप है ?
समाधान - शास्त्रों में पाप के पाँच प्रकार हैं- हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह, अर्थात् संग्रह । प्रथम से चतुर्थ तक पाप की धारा स्पष्ट ही है । न जाने पंचम पर आकर लोक मानस का रास्ता मोड़ क्यों खा जाता है ? यह मुझे समझ में नहीं आता । धनागम के बारे में समाज में आज जो विचार फैला है, वह मध्ययुगीन सामन्तवादी प्रवाह से प्रभावित है । धन प्राप्ति को एकान्त पुण्य और एकान्त पाप रूप में नहीं माना जा सकता । धन अपने आप में जड़ है, वह न पाप रूप है और न पुण्य रूप | उसकी प्राप्ति का प्रकार व्यक्ति की भावना पर अधिक आधारित रहता है ।
प्रश्न - धर्म परिवर्तनशील है, या अपरिवर्तनशील है ?
समाधान - जैन धर्म स्याद्वाद को मानता है । मैं कहूँगा कि धर्म के दोनों रूप स्वीकार्य होने चाहिए। एक आम्र तरु है । वह हर साल नये पत्तों और नये फलों के रूप में परिवर्तित होता है । परन्तु मूल रूप में, जड़ रूप में वह परिवर्तित नहीं होता । आम्र वृक्ष बदला भी बदला । धर्म के सम्बन्ध में भी यही सत्य लागू पड़ता है।
और नहीं भी धर्म का बाह्म
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