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संसार बुरा नहीं, व्यक्ति की दृष्टि बुरी है १०१
संविभागी को नहीं हो सकती । कितना सुन्दर सिद्धांत है ? जो बांट कर खाना नहीं चाहता, जो सब कुछ अपने लिए ही संग्रह कर रखना चाहता है, वह राक्षसी वृत्ति का मनुष्य है । पूँजीवादी मनोवृत्ति का मनुष्य सबको लूटने की भावना रखता है । भारत की संस्कृति में तो यह कहा गया है"शत हस्तं समाहर, सहस्रहस्तं संकिरः ।" मनुष्य तू सैकड़ों हाथों से संचय कर, पर हजारों हाथों से देना भी मत भूल । त्यागपूर्वक ही भोग कर । तू सुखी बन, यह तेरा अधिकार है, पर दूसरों को भी सुखी रहने दे | अपने सुख-कणों को बटोर कर मत बैठ, बिखेरता चल, जीवन यात्रा में । यही त्याग - वैराग्य की सच्ची भावना है, जिसकी बात मैं कह रहा था ।
आज का पश्चिम भौतिकवादी है, सत्तावादी है, नियन्त्रणवादी है, परन्तु वह सहृदय नहीं है । संयम का अभाव होने से युद्धों में रत रहता है । और आज का पूर्व, वह भूखा है, अभावग्रस्त है । आध्यात्किता का नारा उसके गले से नीचे नहीं उतरता । अभावों की पीड़ा से वह पीड़ित है, धर्म न अति दुःख । भौतिकता और आध्यात्मिकता का सन्तुलन होना चाहिए । दोनों एक-दूसरे के पूरक बने न कि विरोधी । भौतिकता यदि स्वच्छन्द घोड़ा है, तो आध्यात्मिकता उसकी लगाम है। बिना लगाम का घोड़ा खतरनाक होता है । भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय से जागतिक विकास सम्भव है ।
अब मैं, फिर अपनी मूल बात पर आ जाता है । मनुष्य जब मनुष्यता प्राप्त कर लेगा, मनुष्य जब सच्चे अर्थों में त्याग - वैराग्य को जीवन में ढाल पाएगा, और जब मनुष्य सहृदय बन सकेगा, तभी वह अपना परिवार का, समाज का और राष्ट्र का कल्याण कर सकेगा, विकास कर सकेगा । संसार को बदलने की अपेक्षा मनुष्य पहले अपने आपको बदले । दूसरों को बुरा कहने से पूर्व जरा अपने अन्दर भी झांक ले । कहीं अपने अन्दर हो तो बुरापन नहीं है । दृष्टि बदलो, तो सृष्टि अपने आप ही बदल जाएगी । व्यक्ति कदाचित् बुरा हो सकता है, परन्तु सारा संसार कभी बुरा नहीं होता ।
जोधपुर, सिंहपोल
११-१-५३
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