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सच्चा साधक : सम्यग्दृष्टि ६७ वे जो गिर-गिरकर भी सम्भल जाते हैं और तीसरे वे जो गिरकर कभी सम्भलते ही नहीं-गिरे तो गिरते ही रहे । जो कभी गिरते नहीं, वे देव हैं, अरिहन्त हैं। क्योंकि पतन का कारण कषाय भाव उनमें नहीं है। मिथ्यात्व और प्रमाद भी नहीं है । भूल का मूल ही नहीं, तो फिर भूल हो भी तो कैसे हो? जो गिरते हैं, पर गिरकर सम्भल जाते हैं, वे साधक हैं, सन्त हैं । सन्त अपनी भूल को कभी छुपाता नहीं। भूल को भूल स्वीकार करने वाला साधक सम्यग्दृष्टि है । प्रमाद और कषाय के कारण वह साधना के पथ पर से कभी गिर भी पड़ता है, परन्तु फिर शीघ्र ही सम्भल जाता है, क्योंकि वह सच्चा है । जो गिर कर कभी उठता नहीं, वह मिथ्या दष्टि है। गिरा तो मिट्टी के ढेले की तरह पड़ा ही रहा । क्योंकि मिथ्यात्व भाव के कारण वह अपनी भूल को कभी भूल स्वीकार नहीं करता । यही कारण है, इस प्रकार की आत्मा का निरन्तर पतन होता रहता है। कवि की वाणी में कहना होगा कि
"गिरकर उठना, उठकर गिरना,
है यह जीवन का व्यापार ।" गिरना उतना बुरा नहीं, जितना कि गिरकर पड़े ही रहना और उत्थान के लिए किसी प्रकार का प्रयत्न हो न करना।
मैं आप से कह रहा था, कि सम्यग्दृष्टि आत्म-तत्व का पारखी होता है। वह दूसरा कुछ जानता हो, या न जानता हो? पर इतना तो वह अवश्य जानता है, कि आत्मा है । वह कषाय-युक्त है, उसे कषाय-मुक्त बनाना है। आकाश में काले बादल कितने भी सघन क्यों न हों ? किन्ता अन्त में सूर्य की ही विजय होती है। सम्यग्दृष्टि की जीवन-दष्टि यही रहती है । आत्मा को विकृत अवस्था से संस्कृत अवस्था में ले जाना उसके जीवन का ध्येय होता है । समभाव की साधना से वह शुद्ध बुद्ध और मुक्त होने का सतत प्रयत्न करता रहता है।
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