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सच्चा साधकः सम्यग्दृष्टि
मनुष्य का जीवन क्या है ? एक नाटक, जिसमें एक के बाद एक दृश्य बदलता ही रहता है। आप में से बहुत-सों ने सिनेमा देखा होगा। चित्रपट पर कितने लुभावने चित्र आते हैं और तेजी से चले जाते है । कभी सुन्दर दृश्य आता है, तो कभी बुरा भी ! सुन्दर दृश्य को देखकर आप प्रसन्न होते हैं और बुरे को देखकर खिन्न हो जाते हैं। आपके चित्त पर चित्र पटों का कितना गहरा प्रभाव पड़ता है। आप कितने प्रभावित होते हैं। मैं आपसे कह रहा था, कि यह संसार भी एक सिनेमा है, एक चित्रपट है, एक नाटक है, जिसके पात्र आप स्वयं हैं । जीवन में कभी हर्ष के दृश्य, तो कभी विषाद के दृश्य उपस्थित होते रहते हैं। सुख और दुःख जीवन में धूप-छाया की तरह आते-जाते हैं । कवि की वाणी में जीवन के सम्बन्ध में हमें कहना होगा -
"जीवन के अविराम समर में,
कभी हार है, जीत कभी। कभी पराजय का रोना है,
गाना जय के गीत कभी।" जीवन के सिनेमा में कभी हार, कभी जीत । कभी हर्ष, कभी विषाद । कभी रोना, कभी गाना-ये सब चलते रहते हैं।
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