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जन संस्कृति का मूल स्वर : विचार और आचार
४५ कारण अन्धा हाथी इधर-उधर टकराता ही फिरता है । मैं कह रहा था कि जीवन में विचार के प्रकाश के बिना अंधेरा ही अंधेरा है । श्रीदास की तरह अंधे होकर चलने में कुछ भी सार नहीं है । वह गति नहीं, बल्कि तेली के बैल की तरह भटकना ही कहा जाएगा ।
जिस व्यक्ति के जीवन में विचार और विवेक का प्रकाश होता है, वह जानता है कि मैं कौन हूँ ? मेरे जीवन का क्या लक्ष्य है ! वह चिन्तन करता हैं अपने सम्बन्ध में -
"हुँ कौन हुँ ? क्या थी थयो ?
शुं स्वरूप छे मारू खरू ?"
मैं कौन हूँ? मैं देह नहीं हूँ । मैं इन्द्रिय नहीं हूँ । मैं मन नहीं हूँ । ये सब तो पौद्गलिक है, जड़ हैं। मैं तो इन सबसे भिन्न हूँ । चैतन्य हूँ । ज्योतिरूप हूँ । अविवेक और अविचार के कारण ही मैंने इनको अपना समझा था । इस प्रकार का भेद विज्ञान जिनके घट में प्रकट होता है, वे सच्चे साधक हैं, भले वे ग्रहस्थ हों या सन्त हों । शास्त्रों में साधक को मधुकर तुल्य कहा है । जैसे मधुकर पुष्प में से सुरभि और रस ग्रहण कर लेता है, वैसे साधक भी शास्त्रों में से सार तत्व ग्रहण कर लेता है । सुगृहीत विचार को फिर वह आचार का रूप देता है। ज्ञान के साथ क्रिया न हो, तब भी भव बन्धन से मोक्ष नहीं । अकेला ज्ञान भी निरर्थक और अकेली क्रिया भी व्यर्थ है । एक आचार्य ने कहा - "ज्ञानं भारः क्रियां विना, क्रिया निष्फला ज्ञानं विना ।" दोनों के सुमेल में ही जीवन की पावनता व पवित्रता रह सकती है ।
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मैं अभी आप से कह रहा था कि-जीवन में विचार की आवश्यकता है, परन्तु आचार के साथ हो । केवल विचार ही विचार हो, आचार न हो, तब भी जीवन की साध पूरी नहीं हो सकती । मधु मधुर होता है, यह जान लेने पर भी उसके माधुर्य का आनन्द चखने पर ही आता है । भोजन भोजन पुकारने से क्या किसी को भूख मिटी है ? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि पहले समझो, फिर करो । पहले ज्ञान और फिर दया का यही गूढ़ रहस्य है । समझ बहुत कुछ लिया पर किया कुछ भी नहीं । यदि जीवन की यही स्थिति रही तब तो वही बात होगी
रात को अंधेरे में सेठ के घर में चोर आ घुसा। सेठानी को खबर
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