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६६ अमर भारती से और एतद् देश प्रसूत अनेक महापुरुषों से जोड़ दिया गया है या काल के महाप्रवाह में स्वतः ही जुड़ता चला गया है । और यह उपयुक्त भी था । क्योंकि भारत की मूल चेतना के अनुसार धर्म, संस्कृति और दर्शन जनजीवन से कभी अलग नहीं रहा। मेरे विचार में यकि धर्म, दर्शन और संस्कृति जन-जीवन में ओत-प्रोत न होते, तो आज का मानव, मानव के रूप में न होकर पशु-धर्मा के रूप में होता। मानव को मानवत्व प्रदान करने वाले धर्म, दर्शन और संस्कृति ही हैं। जो यहाँ के जन-जीवन में अनुस्यूत होकर पर्यों के रूप में अभिव्यक्त होते रहे हैं ।
मैं अभी आप से दीपावली के सम्बन्ध में कह रहा था कि यह पर्व भारतीय जीवन में सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप में युग-युग से चला आ रहा है।
आज के रोज भारत की जनता इस दीप पर्व को आनन्द, हर्ष, प्रमोद और उल्लास के पुण्य पलों में मना रही है। बच्चे बूढ़े, जवान सभी का दिल आज तरंगित है। नर और नारी आज विशेष सज्जा के साथ इस पुण्य पर्व की आराधना कर रहे हैं। किसी भी वर्ण का और किसी वर्ग का व्यक्ति हो आज तो सभी के हृदय में अपार प्रसन्नता भरो है । अर्थ-मानव जीवन का मुख्य आधार है, तन-मन से आज उसकी पूजा की जा रही है। लक्ष्मी यानी धन शक्ति की आज घर-घर में आराधना हो रही है । धनी और निर्धन सभी आज विशेष वेश-भूषा में सज्जित हैं और मधुर भोजन करेंगे । रहन-सहन और खान-पान सभी में आज विशेषता रहती है यही तो इस पर्व का सामाजीकरण है।
सांस्कृतिक दृष्टि से भी इसका बड़ा महत्व है। वैदिक और जैन दोनों परम्पराओं से इसका प्रगाढ़ सम्वन्ध रहा है । इस महादेश में प्रचलित अनेक जन-श्रुति और अनेक जन प्रवाद भी इस बात के साक्षी हैं कि दीपाचलो-पर्व भारत का एक महान सांस्कृतिक पर्व है। इस पर्व की सांस्कृतिकता सिद्ध करने के लिए हमें सर्व प्रथम रामायण काल में प्रवेश करना होगा। वैदिक साहित्य के अनुसार राम अपने चतुर्दश वर्षीय वन निर्वासन की अवधि पूरी करके और लंका विजेता होकर जब अयोध्या वापिस लौटे तो अयोध्या के जन-जन में अपने आराध्य एवं मनोनीत देवता के स्वागतार्थ अयोध्या नगर की दीप पंक्ति के प्रकाश से भर दिया। तभी से यह भारत
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