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दीप - पर्व ६७ का प्रकाश पर्व वन गया । जो युग-युग से रूपान्तरित होता हुआ आज भी जन-जन के तन-मन में उल्लास और हर्ष के रूप में जीवित है ।
पौराणिक गाथा के अनुसार यह भी कहा जाता है कि जब नरकासुर के स्वच्छन्द उपद्रवों से और मन चाहे अत्याचारों से लोक-जीवन संत्रस्त एवं भयभीत हो उठा तो तद्युगीन लोकप्रिय नेता श्रीकृष्ण ने उस पापात्मा की जीवन लोला का संहार कर दिया। वह दिन पौराणिक साहित्य में नरक चतुर्दशी के नाम से परिचित है । और अगले दिन श्रीकृष्ण
द्वारिका में प्रवेश किया, जिसके हर्ष और उल्लास में घर-घर में प्रकाश किया गया था । आज की भाषा में हम उस दिन को दीपावलो कहते हैं !
जैन परम्परा के अनुरूप इस पर्व से दो महान घटनाओं का सम्बन्ध है - प्रथम कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की यामिनी के चरमप्रहर में चरम तीर्थंकर महावीर का पावापुरी में परिनिर्वाण और द्वितीय गणधर गौतम इन्द्रभूति को केवलज्ञान । पावापुरी नगरी में एक साथ निर्वाण महोत्सव और कैवल्य महोत्सव होने से मानव और देवो के तन, मन और नयन में हर्ष उल्लास और आनन्द छा गया । उस परम पावन दिवस की संस्मृति में आज भी भारत का जन-जन पर्व पूजा करता है । श्रमण परम्परा के महान आचार्य जिनसेन ने अपने इतिहास ग्रन्थ हरिवंश पुराण में कहा है :
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" ज्वलत् प्रदीपालिकया प्रबुद्धया, सुरासुरैर्दीपितया प्रदिप्त्या | तदास्म पावानगरी समन्ततः ;
प्रदीपिताऽऽकाशतले प्रकाशते ॥
ततस्तु लोकः प्रतिवर्ष मादिशत्,
प्रसिद्ध दीपालिकयाऽच भारते ।
समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वर,
जिनेन्द्र निर्वाण-विभूति मुक्ति भाक् ॥ "
भगवान महावीर के परिनिर्वाण होते हो पावा के मनुष्यों ने ओर स्वर्ग के देवों ने मिलकर दीपों का प्रकाश किया; जिससे पावानगरी जगमगाने लगी । तभी से भारतवर्ष को कोटि-कोटि जनता हर साल अपनेअपने घरों में, नगरों में, श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रकाश करके अपने
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