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दीप-पर्व ६३
आवेग बढ़ता है, तब मानव के अन्तर मानस में छुपे हुए दैवी भावों का उत्पीड़न होता है । दिव्य भावों की प्रसुप्त अपार शक्ति को जागृत करना आध्यात्मिक भाषा में नरकासुर का वध होना कहा गया है ।
पौराणिक रूपक के अनुसार देव और दानवों ने समुद्र मन्थन किया, जिसके फलस्वरूप चौदह रत्न उपलब्ध हुए, जिनमें एक रत्न लक्ष्मी थी । आत्मा एक सागर है । मनोभूत दुर्वृत्तियाँ और सद्वृत्तियाँ- - दानव और देव हैं, जिनके परिमन्थन से आध्यात्मिक शक्ति रूप लक्ष्मी का आविर्भाव होता है । भारतीय जनश्रुति के अनुसार वह समुद्र मन्थन कार्तिक अमावस्या को परिपूर्ण हुआ था, उसकी स्मृति में यह दीपावली पर्व मनाया जाता है ।
उपनिषद् काल के महामनीषी ऋषि ने इसको "ज्योति - पर्व" की संज्ञा ने सम्बोधित किया है । और कहा - " तमसो मा ज्योतिर्गमय” अन्धकार से प्रकाश में चलो । यह पर्व प्रकाश पूजा का महा पर्व है ।
जैन - संस्कृति की मान्यता के अनुरूप - अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के अमर अधिदेवता महा मानव भगवान महावीर के परिनिर्वाण पर नव कौलिक और नव मल्लिक राजाओं ने करुण स्वर में कहा - " मर्त्य - लोक का भावालोकचला गया, अब द्रव्यालोक करो ।" कार्तिक बहुला अमावस्या की यामिनी के चरम प्रहर में दो महान् घटनाएँ घटित हुई- वीर परिनिर्वाण और गौतम कैवल्य । निर्वाण महोत्सव और कैवल्य महोत्सव के हर्य प्रकर्ष में से ही दीप पर्व आविर्भूत हुआ । अपने मन के अनन्त - अनन्त काल के अन्धकार को सम्यक् ज्ञान; सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के आलोक से दूर करो ! यही इस पर्व का जैन दृष्टि से आध्यात्मिक महत्व है ।
इस प्रकार यह दीपावली पर्व या दीप पर्व भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भावना का महाप्रतीक तथा महा संकेत है । समाज, संस्कृति और आत्म-भाव के सुमेल का सुन्दर त्रिवेणी संगम-स्थल रहा है ।
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लाल भवन, जयपुर
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१३-११-५५
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