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७२ अमर-भारती विद्वान का व्यक्तित्व भी निखरता गया। विद्वान् की वाणी से राजा अत्यन्त प्रभावित हो गया। विद्वान् के विचार-चिन्तन से राजा के मन का अनादर आदर-सत्कार में बदल गया । जब विद्वान् राजसभा से उठकर जाने लगा तो राजा को अपनी भूल का भान हुआ कि मैंने इस विद्वान को बैठने के लिए योग्य स्थान और आसन भी नहीं दिया। फिर भी विद्वान के मुख मण्डल पर रोष की क्षीण रेखा तक भी नहीं। विद्वान बुद्धि से ही ऊँचा नहीं, बल्कि हृदय से भी महान् है, उदार है ।
राजा उस विद्वान की वाणी से और ज्ञान गरिमा से इतना प्रभावित हुआ कि उसे यह भान तक नहीं रहा, मैं नंगे पैरों कितनी दूर तक इस विद्वान को विदा देने के लिए आ पहुँचा हूँ। विद्वान ने मधुर स्वर में कहा-“राजन, अब आप लौट जाएँ ।फी दूर आ गये हैं।" राजा ने विनीत भाव से कहा-"आप के गुणों का प्रभाव और वाणी का जादू मुझे लौटने नहीं देता।" विद्वान ने कहा- 'राजन्, जब मैं आया था, तब आपने जरा भी आदर नहीं दिया और अब आप मुझे छोड़ भी नहीं रहे हैं । मैं वही है और आप भी वही हैं । फिर इतना अन्तर क्यों ?" राजा ने कहा - "आते समय व्यक्ति का जो आदर-सत्कार किया जाता है, वह उसकी वेश-भूषा और सुन्दर आकृति के कारण होता है । आप में उन दोनों का अभाव था । परन्तु, जाते समय व्यक्ति का जो आदर-सत्कार होता है, वह उसके गुणों के कारण होता है, उसकी आप में कमी नहीं है। बुद्धि का प्रकर्ष तो आप में है ही, परन्तु शील, शान्ति और सन्तोष भी आप में विशेष रूप में प्रकट है। आप की वाणी के माधुर्य का तो कहना ही क्या ?"
भारत की संस्कृति गुण पूजा को महत्व देती है, व्यक्ति पूजा को नहीं । व्यक्ति अपने आप में कितना भी बड़ा क्यों न हो ? उसकी महानता के आधार धन, सत्ता, जाति और सम्प्रदाय नहीं बन सकते । गुणवान व्यक्ति ही वस्तुतः यहाँ पर आदर-सत्कार और पूजा का पात्र होता है, आचार्य चाणक्य ने अपने नोति ग्रन्थ में कहा है
"स्वदेशे पूज्यते राजा,
विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।" आपके जयपुर नगर में जो सन्त और सतो विराजित रहे हैं, उनके साथ आपका जाति और कुल का क्या सम्बन्ध है ? परन्तु मैं समझता हूँ, इस सम्बन्ध से भी बढ़कर एक पवित्र सम्बन्ध है-धर्म का और गण पूजा
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