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हरिजन दिवस ७७ में, किसी ने क्षत्रिय के घर में किसी ने महाजन के घर में जन्म ले लिया, तो क्या इतने मात्र से वह ऊँचा बन गया ? यह कोई तथ्य पूर्ण बात नहीं है । ऊँचता व महानता प्राप्त करने के लिए सत्कर्म, संयम और सदाचार अपेक्षित हैं, न कि किसी के घर जन्म लेना मात्र ही । शरीर तो जड़ पुद्गलों का सचय मात्र है ? उसमें जात-पात का कोई नैसर्गिक भेद नहीं है । वह मृण्मय पिण्ड आत्म देव का मन्दिर है । वह अपने आपमें पवित्र या अपवित्र नहीं है । पवित्रता और अपवित्रता का मौलिक आधार आचार की शुद्धता और आचार की अशुद्धता ही हैं। इस प्रसंग में मैं आपको भारत के एक महान दार्शनिक सन्त के जीवन का एक सुन्दर संस्मरण सुना रहा हूँ।
आचार्य शंकर गंगा की पावन धारा में स्नान करके लौट रहे थे। मार्ग में एक चाण्डाल मिल गया। जिस मार्ग से आचार्य लौट रहे थे, वह एक तग गली थी। बिना स्पर्श के एक साथ दोनों मनुष्य नहीं जा सकते थे । आचार्य के समक्ष धर्म संकट आ गया। आचार्य ने रोष के स्वर में कहा “दूर हट, चाण्डाल ! दूर हट । मैं स्नान करके आया हूँ। चाण्डाल ने विनम्र स्वर में, पर विचार सागर की गहराई में पहुँच कर कहा
"अन्नमया दन्नमय
मथवा चैतन्यमेव चैतन्याद् । द्विजवर ! दूरी कतुवाञ्छसि किम् ?
किं गच्छ गच्छेति ॥" द्विज श्रेष्ठ ! तुम मुझे दूर हटने को कह रहे हो ! पर जरा विचार तो करो। दूर हटने वाला है कौन ? तुम मेरे शरीर के स्पर्श से यदि भयभीत हो, तो जैसा अन्नमन देह आपका है, वैसा ही मेरा । यदि मेरी आत्मा को दूर हटाना चाहते हो, तो यह भी विचार आपका संगत नहीं, क्योंकि जैसा चैतन्य आपकी देह में खेल रहा है, वैसा का वैसा ही चैतन्यदेव मेरे इस अन्नमय शरीर में भी खेल रहा है। फिर हटने की बात किससे कहते हो ?
चाण्डाल की अध्यात्म भाषा में कथित अध्यात्म-वाणी को सुनकर आचार्य शंकर केवल एक ताकिक की भांति प्रभावित हो नहीं हुए, बल्कि गद-गद् हृदय हो कर बोले
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