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अमर-भारती
और आचार, ज्ञान और क्रिया दोनों की समान रूप से आवश्यकता है। ज्ञान को क्रिया की और क्रिया को ज्ञान की आवश्यकता है। साधक को देखने के लिए आँख चाहिए और चलने के लिए पैर भी चाहिए । जैन संस्कृति का यह परम पवित्र सूत्र है "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः ।" ज्ञान और क्रिया से मोक्ष मिलता है। विचार और आचार से मुक्ति मिलती है । साधना के अनन्त गगन में ऊँची उड़ान भरने के लिए साधना करो विचार की, साधना करो आचार की। जीवन में प्रकाश भी हो और चलने की शक्ति भी।
.. मै कह रहा था कि विचार एवं विवेक के अभाव में साधक विपथ पर भी जा सकता है। जो नहीं करना चाहिए वह भी कर बैठता है। मैं एक बार एक ग्राम में ठहरा हुआ था। वहाँ एक भक्त था श्रीदास । भक्ति में मगन रहता । सन्तों की सेवा करता । जप और तप में उसे बड़ा आनन्द आता। पढ़ा लिखा नहीं था । परन्तु बहुत से सन्तों की वाणी उसे याद थी। बोलने लगता तो झड़ी लगा देता। एक दिन वह बिगड़ बैठा। गाली देने लगा। जिस मुख से भक्ति के फूल झड़ते थे, आज उस मुख से अंगारों की बरसा हो रही थी। सब लोग हैरान थे कि इसे आज हो क्या गया ? एक सज्जन ने साहस करके पूछा-भक्त जी, गाली किसे दे रहे हो ? और किस लिए दे रहे हो ? भक्त श्रीदास जी ने तपाक से कहा--"जिसे मेरी घरवाली दे रही है और जिस लिए दे रही है। मैं भी उसे ही दे रहा हूँ। आखिर, पत्नी की बात तो रखनी ही पड़ती है न ?"
श्रीदास के साथ किसी का संघर्ष नहीं। उसे यह भी पता नहीं कि किसके साथ और किस बात पर झगड़ा हो गया। घरवालो गाली देती घर में आई, तो खुद भी गाली देने लगा। जहाँ विवेक नहीं, विचार नहीं, चिन्तन नहीं, वहाँ यही स्थिति होती है, यही दशा होती हैं। परिवार में झगड़े क्यों होते हैं ? नासमझी के कारण। समाज में संघर्ष क्यों होते हैं ? अज्ञानता के कारण । राष्ट्र में युद्ध क्यों होते हैं ? अविवेक के कारण । बहुत से लोग इस कारण गलत परम्परा को निभाते हैं कि उनके बड़ेरे ऐसा ही करते थे। दूसरे कूप का चाहे मधुर व शीतल जल ही क्यों न हो? परन्तु परम्परावादी अपने बाप-दादा के कूप का खारा पानी ही पीता है । इसलिए कि कूप उसके बड़ेरों का है। वे लोग चलते रहे हैं, किन्तु अन्धे हाथी की तरह । हाथी में कितना ताकत होती है ? पर आँखे न होने के
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