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संयम की की साधना
जैन संस्कृति में सर्वोच्च विजय उसे माना गया है, जो आत्म-विजय है । संसार को जीत लेना सरल है, पर अपने आपको जीतना कठिन है । पाश्चात्य संस्कृति सिकन्दर, नेपोलियन और हिटलर को महान कहती है । भारत में भी शतशः रण- बिजेता और लड़ाके रण बांकुरे हुए हैं । परन्तु उन्हें महापुरुष नहीं कहा गया । यहाँ महापुरुषत्व की कसौटी यह है कि जो अपना दमन कर सके, अपने आप को जीत सके, अपनी वासना और विकारों को रोक सकने में समर्थ हो । त्याग, तपस्या के महामार्ग पर चलने वाला ही वस्तुतः यहाँ महापुरुष, महाविजेता और महावीर कहलाता है । जैन धर्म त्याग, संयम और तप का धर्म है । जिस व्यक्ति में, जिस परिवार में, जिस समाज में और जिस राष्ट्र में त्याग भावना, संयम साधना और तप आराधना है, वहाँ सर्वत्र जैन धर्म व्यक्त या अव्यक्त रूप में परिव्याप्त है ।
जैन धर्म की यह चेतावनी है कि आशा रखकर श्रम करो, किन्तु आवश्यकता के समय त्याग के लिए भी तैयार रहो । भोग के लिए जितनी - तैयारी है, उससे कहीं अधिक त्याग के लिए भी तैयार रहो । जैन धर्म की मूल भावना का यदि किसी ने स्पर्श किया हो, तो वह इस बात को भली भाँति जान सकता है और समझ सकता है कि शालिभद्र की ऋद्धि से जम्बु
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