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जैन-संस्कृति का मूल स्वर :
विचार और आचार
मानव की जय और पराजय उसके अन्तर में ही रहती है । जब तक उसमें विचार शक्ति और आचार बल है, तब तक उसे भय नहीं, खतरा नहीं । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता और विजय श्री उसे उपलब्ध होती रहती है । विचार तथा आचार-ये दोनों शक्ति के अक्षय भंडार हैं । जैन संस्कृति का मूल स्वर-विचार और आचार ही है । भगवान् महावीर ने कहा है
साधक तू साधना के महामार्ग पर आया है । इधर-उधर न देखकर सीधे लक्ष्य की ओर देखना तेरा परम धर्म है। यह तेरा जीवन-सूत्र है। विचार और आचार तेरी यात्रा में संबल हैं, पाथेय हैं। इनकी भूल पर तू साधना नहीं कर सकेगा। सदा इनकी संस्मृति रख कर चलता चल । विचार प्रकाश है और आचार शक्ति । प्रकाश ओर शक्ति के सुमेल से जीवन पावन होता है ।
साधक भले श्रमण हो या श्रावक, सन्त हो या गृहस्थ दोनों के जीवन का लक्ष्य एक ही है-नित्य-निरंतर ऊपर उठना। साधना के अनन्त गगन में ऊँची उड़ान भरना । पक्षी अपने घोंसले से निकलते ही अनन्त गगन में अपनी शक्ति भर उड़ान भरता है। पर, कब ? जबकि
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