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अमर भारती
मोक्ष - जीवन की ये तीनों स्थितियाँ उसके अपने हाथ में है । जब मनुष्य की आत्मा में उसका सोया हुआ देवत्व जागृत हो जाता है, तब उसकी चेतना भी विराट होती जाती है और यदि उसका पशुत्व भाग जाग उठता है, तो वह संसार में अशान्ति और तूफानों का शैतान हो जाता है । मनुष्य के अन्तर में जो अहिंसा, करुणा, प्रेम और सद्भाव हैं - वे उसके देवत्व के, ईश्वरी भाव के कारण हैं और उसके अन्तर मानस में उठने वाले तथा उसके व्यवहार की सतह पर दीख पड़ने वाले द्व ेष, क्रोध, घृणा और विषमता उसके राक्षसत्व के कारण हैं । इसलिए मनुष्य अपने आप में राक्षस भी है और देवता भी है ।
इस प्रकार भारतीय चिन्तन की परम्परा मनुष्य को विराट रूप में देखती है। गीता में श्रीकृष्ण के विराट रूप का जो वर्णन आता है, उसका तात्पर्य यही है, कि प्रत्येक मनुष्य अपने आप में एक विराट चेतना लिए घूमता है । हर पिण्ड में ब्रह्माण्ड का वास है । आवश्यकता केवल इस बात की है, कि मनुष्य अपनी सोई हुई शक्ति को जागृत भर करता रहे।
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जैन धर्म का यह एक महान सिद्धांत है, कि हर आत्मा परमात्मा बन सकती है, हर भक्त भगवान हो सकता है और हर नर नारायण होने को शक्ति रखता है । वेदान्त दर्शन भी इसी भाषा में बोलता है - " आत्मा तू क्षुद्र नहीं, महान है, तू तुच्छ नहीं, विराट है ।" भारत की विचार परम्परा जन-जीवन में विराटता का प्राणवन्त सन्देश लेकर चली है । चेतना का वह विराट रूप लेकर चली है । भारत के मनीषी विचारकों का प्रेम-तत्व मात्र मनुष्य तक ही सीमित नहीं रहा - उस प्रेम तत्व की विराट सीमा रेखा में पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और वनस्पति जगत भी समाहित हो जाता है । भारत की विराट जन चेतना ने साँपों को दूध पिलाया है । पक्षियों को मेवा मिष्ठान खिलाया है। पशुओं के साथ भी स्नेह और सद्भाव का सम्बन्ध रखा है । इतना ही नहीं, पेड़ और पौधों के साथ भी तादात्म्य सम्बन्ध रखा है । महर्षि कण्व अपने आश्रम से दुष्यन्त के साथ जब अपनी प्रिय पुत्री शकुन्तला को विदा करते हैं, तब आश्रम की लताएँ और वृक्ष अपने फूल और पत्तों का अभिवर्षण करके अपना प्रेम व्यक्त करते है, हर्ष भाव को प्रकट करते हैं ।
मैं आपसे विचार कर रहा था, कि भारत की विचार परस्परा
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