________________
ध्येय-हीन जीवन, व्यर्थ है ३६ जो यह कहता है कि आओ, मैं भी जीवित रहूँ और तुम भी । मनुष्य वह है, जो वैर-विरोध के क्षणों में भी अपने कर्तव्य को नहीं भूलता है। आपके राजस्थान के जन जीवन की एक घटना है
एक ही नगर में और एक ही मुहल्ले में रहने वाले दो राजपूतों का परस्पर वैर-विरोध बड़े लम्बे अर्से से चल रहा था। दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। दोनों अवसर की तलाश में थे। कब अवसर मिले, और कब मार्ग का काँटा साफ हो ? यह थी, उन दोनों के मन की विनाशक भावना।
एक दिन का प्रसंग है कि राजा का मदोन्मत्त गजराज बन्धन तुड़ा कर भाग निकला । जिधर भी गया, सर्वनाश करता गया। बाजार, गली और मुहल्ले सबमें सन्नाटा छा गया। एक बच्चा गली के मोड़ में से निकला और दूसरी तरफ जाने को भागा । सामने से यमराज की तरह गजराज आ पहुँचा । लड़के का पिता भी यह भयंकर दृश्य देखकर कांप गया। परन्तु अपने प्राणों के मोह से छुपा ही खड़ा रहा, साहस करके अपने लाडले लाल की रक्षा करने के लिए आगे नहीं बढ़ सका। प्राणों का भय मनुष्य को कायर बना देता है । जहाँ सबको अपने प्राणों की पड़ी हो, वहाँ दूसरों के प्राणों की रक्षा करना, विरले मनुष्यों का ही काम है। लेकिन वह राजपूत जो उस लड़के के बाप का कट्टर वैरी था और वह यह भी जानता था कि यह लड़का मेरे वैरी के घर का एकमात्र चिराग है, वह बिजली के वेग से आगे बढ़ा और लड़के को गजराज के आगे से गोद में भर कर भागा । मौत के भयानक मुँह में से स्वयं भी निकला और लड़के को भी बचा लाया । वह चाहता, तो अपने वैर का बदला चुका सकता था। परन्तु उसकी दिव्य मानवता ने उसे यह क्रूर-दृश्य देखने नहीं दिया।
नगर के हजारों लोगों ने दिल दहलाने वाले इस भयंकर दृश्य को देखा और उस साहसी तथा सच्चे इन्सान की जय-जयकार करने लगे । लड़के का पिता भी उसकी सच्ची मानवता को देख कर पिघल गया । अपने वैर-विरोध और घृणा को भूल गया । लड़के का पिता उसके पैरों में गिर पड़ा और बोला-तू मेरे प्राणों का गाहक था, मेरा सर्वनाश करने को तुला हुआ था, फिर तूने जान-बूझकर मेरे घर के चिराग की रक्षा कैसे कर ली?
लड़के को बचाने वाले राजपूत ने गम्भीर स्वर में कहा-“मेरी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.