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बरसो मन, सावन बन बरसो ११ मनुष्य अनेक प्रकार के प्रयत्न करता है । अपने मकानों पर, दूकानों पर और बाजारों में पानी छिड़क-छिड़क कर उसको शांत करता है। किन्तु उसका यह प्रयत्न उतना ही निःसार है, जैसा कि महाग्नि काण्ड को बुझाने के लिये दो चार पानी के छींटे डाल कर बैठ जाना, और समझ लेना कि अब अग्निकाण्ड शान्त हो गया है । यह असीम कार्य मनुष्य की ससीम शक्ति से भला कहाँ हो सकता है ? कैसे हो सकता है ? यह महाशक्ति तो उस महामेघ में ही है, जो घहर-घहर कर आकाश पर छा जाता है और छहर-छहर कर धरती पर बरस पड़ता है। आकाश के विराट प्रांगण में घुमड़-घुमड़ कर उठ खड़ी होने वाली काली-पीली घनघोर घटाएं, जब हजार-हजार धाराओं में धरती से मिल भेंट करती हैं, तब कहीं धरती की तपन बुझती है । मनुष्य, पशु और पक्षियों को सुख और शान्ति मिल पाती है । आकाश में शीत पवन लहरें मारने लगता है । धरातल के महागर्भ में हजारों-हजार रूपों में हरियाली फूट निकलती है। सर्वत्र सुख, शान्ति और समृद्धि का सुखद प्रसार होने लगता है । बन हरे-भरे हो जाते हैं। पहाड़ भरे-पूरे दीखने लगते हैं। चारों ओर हरियाली छा जाती है।
मानव का मन भी अपने आप में एक विराट विश्व है। उसमें भी विषय और कषाय की आग धू-धू कर जलती है। काम, क्रोध, लोभ और मान की प्रदग्ध कर देने वाली गरम लू चलती रहती है। माया और छलना के अंधड़ व तूफान उठते रहते हैं। मन को अशान्त, असंयत और अप्रसन्न बनाये रखते हैं। विकृत मन शान्ति, सन्तोष व सुख का अनुभव नहीं कर पाता । मानव मन संस्कृत तब बनता है, जब उसमें प्रेम और सद्भाव का महामेघ स्नेह की वर्षा करने लगता है। उस समय मानव के अन्तर्जगत में अहिंसा, मैत्री और करुणा की कोमल हरियाली फूट पड़ती है। स्नेह, सद्भाव, सहयोग और सहकार के प्रयोग से चित्त में एक प्रकार का आनन्द, उल्लास और प्रमोद बढ़ता है, जिससे मानव, मानव के प्रति विश्वास करना सीखता है।
___ एक सन्त का सरस कवि मानस मधुर स्वर में गा उठा था-"बरसो मन, सावन बन बरसो।" मेरे मन ! तुम बरसो। सावन बनकर बरसो । मूसलाधार बरसो । रिम-झिम होकर बरसो। धीरे बरसो, वेग से बरसो । बरसो, बरसते ही रहो-रुको मत । अहिंसा, समता और सत्य का नीर बहा दो । स्नेह और सद्भाव का मस्त पवन बहने दो। संयम और वैराग्य
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