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मानव मन का नाग पास : अहंकार १७ मानव मन के अभिमान ने तूफान खड़ा कर दिया है। किसी को दान दें, तब अभिमान । सामायिक-सवर करें, तब अहंकार । त्याग-तपस्या करें, तब दर्प । मैंने इतना दिया, मैंने इतना किया। धर्म के परम पावन क्षेत्र में भी मनुष्य के अन्तर में स्थित दर्प का सर्प फुत्कार कर उठता है। सम्भव है, धन का अहंकार आत्मा को उतना न गला सके, किन्तु यह जो सत्कर्मों का, धर्म के क्षेत्र का अहंकार है, वह अधिक घातक है और यह आत्मा को गला देने वाला है । अहंकार कैसा भी क्यों न हो ? उससे आत्मा का पतन ही होता है, उत्थान नहीं । विष तो विष ही रहेगा, अमृत नहीं हो सकता। महाबली बाहुबली कितना घोर तपस्वी था, परन्तु अहंकार के संस्कारों ने केवल-ज्ञान की ज्योति प्रकट नहीं होने दी।
शास्त्र में वर्णित अष्ट-मदों में कल, जाति, ज्ञान आदि मद भी परिगणित हो जाते हैं, जिन्हें लोक भाषा में अहंकार, अभिमान और दर्प कहासुना जाता है । आठों ही प्रकार का मद मानव के आध्यात्मिक सद्गुणों का विनाशक है, घातक है ।
मानव के मन में विराट शक्ति और अपार बल है, परन्तु अहंकार के नाग-पास में जकड़ा हुआ वह महाबली हनुमान की तरह अपनी अमितशक्ति और अतुत-बल को भूल बैठा है । अहंकार की घनी काली तमिस्रा में वह अपने अध्यात्म-सूर्य की चमकती किरणों को देख नहीं पा रहा है । जिस दिन मनुष्य के अहंत्व-भाव का नाग-पाश टूटेगा-तब वह लघु से महान बनेगा, क्षुद्र से विराट बनेगा-इसमें जरा भी शंका नहीं है, सन्देह नहीं है। लाल भवन, जयपुर
१३-७-५५
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