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अमर भारती
को राज सभा में बुलाया और पूछा - "आपने दूध क्यों लौटा दिया ?" और उसमें फिर बताशा क्यों डाला ? इसका स्पष्टीकरण कीजिए
विद्वान ने राजा भोज से विनययुक्त विनम्र स्वर में कहा - "राजन्, आपका आशय यह था कि जैसे दूध से कटोरा लबालब भरा है, वैसे मेरी सभा भी विद्वानों से भरी है - यहाँ पर जरा भी स्थान नहीं है । भोज ने इस सत्य को स्वीकृत किया और फिर बताशा डालने का अर्थ पूछा ? आने वाले विद्वान ने कहा- राजन ! इसका अर्थ था कि दूध से भरे कटोरे में जैसे बताशा अपना स्थान बना लेता है, वैसे मैं भी आपकी सभा में अपने आप स्थान पा लूंगा । आप किसी प्रकार की चिन्ता में न पड़ें। जगह नहीं होने पर भी जगह बनाना मेरा अपना काम है । राजन् ! आपकी सभा में भले स्थान न हो, परन्तु आपके मन में स्थान है, तो फिर क्या कमी है ? बताशा दूध के कण-कण में रम कर मिठास भर देता है । मैं भी प्रेम की मिठास आपके मन में और आपकी सभा के सभासदों के मन में अर्पित कर आपकी गौरव गरिमा को और अधिक महिमान्वित करूंगा, फिर स्थान की क्या कमी है ?
मानव मन जब अपनत्व में बँधकर चलता है, तब जगह होने पर भी जगह नहीं दे पाता । मानव तंगदिली के दायरे में अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को भी भूल बैठता है । मैं और मेरा की क्षुद्र भावना मनुष्य का कितना पतन करती है ? मैं आपसे कह रहा था कि संसार में जितने भी दुःख व कष्ट हैं, वे सब परायेपन पर खड़े हुए हैं और बेगानेपन पर ही पनपते हैं । इस हालत में सुख और शान्ति के मधुर नारे लगाने पर भी वह कैसे मिलेगी ? एक बार की बात है कि हम विहार करते-करते एक अपरिचित गाँव में जा पहुँचे । गाँव छोटा था । एक मन्दिर के अलावा ठहरने को दूसरी कोई जगह नहीं थी । सन्त मन्दिर के महन्त के पास पहुँचे, स्थान की याचना की । मन्दिरका महन्त इन्कार हो गया । मैं स्वयं वहाँ गया । महन्त अपने मन्दिर के द्वार पर खड़ा था । बातचीत चली और मैंने भी रात भर ठहरने को स्थान माँगा । टालू नीति का आश्रय लेते हुए उसने कहा- यहाँ पर कोई जगह नहीं है । मैंने कहा आपके मन्दिर में जगह नहीं है, तो न सही । आप के मन में जगह है न । उसने मुस्करा कर कहा- मन में तो बहुत जगह है। मैंने कहा - यदि मन में जगह है, तब तो आपके इस मन्दिर में भी जगह हो जाएगी । मनोमन्दिर में जिसे जगह मिल जाती है, उसे फिर इस ईंट पत्थर
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