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१० अमर-भारती बुद्धि जन्म लेती है और जन-जन के जीवन में ममत्व और मोह मूलक सम्प्रदायवाद तथा पन्थशाही का प्रचार व प्रसार होने लगता है। साधक को पतन के इस महागत से बचाने के लिए ही सन्त के लिए विहार का विधान है। विहार उसका आचार बन जाता है।
___ मैं अपने श्रोताओं में से पूछता हैं, कि हमें वर्षावास करना पड़ता है या हम करना चाहते हैं । श्रोताओं में से एक ने कहा-करना पड़ता है, चाह नहीं है, करने की । हाँ, ठीक है, आपने उत्तर देने में गहरी डूबकी लगा ली है । मैं समझता हूँ, कि मेरे श्रोता सूने मन के नहीं हैं। उनका मननशील मन विचार सागर की तरंगों में तरंगित है। कभी-कभी श्रोता ठीक निशाने की बात कह जाते हैं। श्रवण करके मनन करना श्रोताओं का धर्म है, कर्तव्य है । तभी वे गहरी डुबकी लगा सकते हैं ।
मैं आप से कह रहा था, कि वर्षा-काल में हमें एक क्षेत्र में स्थिर हो बैठना पड़ता है। क्योंकि वर्षा बरसने से सारी धरती हरी भरी हो जाती है। वनस्पति काय की अभिवृद्धि और त्रस जीवों की उत्पत्ति के कारण वर्षाकाल की विहार-चर्या में यतना और विवेक से गमन करने पर भी सन्त जन जीवों की दया का रे रूप में पालन नहीं कर पाते, नहीं कर सकते । अतः सन्त अपने कल्प के अनुसार, विधान के अनुरूप वर्षाकाल में चार मास का वर्षावास करता है, जिसे आप अपनी जन-बोली में चातुर्मास कहा करते हैं, चौमासा कहा करते हैं । द्वादश प्रकार के तपों में एक तप है -'प्रति संलीनता' अर्थात् जीवों की अनुकम्पा और दया के निमित्त अपने आपको समेट कर रखना । अपनी बाहरी क्रियाओं को, शरीर की हल-चल को सीमित और नियमित कर लेना। इसी को क्षेत्र-संन्यास भी कहते हैं । इस दृष्टि से सन्त जीवन में विहार-चर्या यह . भी एक तप है और वर्षाकाल में स्थिर हो बैठना यह भी एक तप है। साधुत्व का सम्पूर्ण जीवन ही तपोमय है । उसका जीवन त्यागमय होता है।
____ मैं अभी आप से वर्षा काल के विषय में कह रहा था। वर्षा कब होती है ? यह आपको पता ही है। पहले आता है, भीष्म ग्रीष्म, आतप और प्रचण्ड धूप । आकाश तपने लगता है, और धरती आग उगलने लगती है । सम्पूर्ण सृष्टि अग्निमय हो जाती है । तपतपाते जेठ मास की लुओं से न केवल मनुष्य, पशु और पक्षी ही, बल्कि पहाड़ तथा मैदान भी झुलस-झुलस जाते हैं। प्रकृति के कण-कण में बिखरी उस आग को शान्त करने के लिये
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