Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, DeepratnasagarPage 21
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- २९४-२९५ __क्रोधादिक कषाय के दोष से घो आशीविष दृष्टिविष सर्पपन पाकर, उसके बाद रौद्रध्यान करनेवाला मिथ्यादृष्टि होता है, मिथ्यादृष्टि वाले मानवपन में धूर्त, छल, प्रपंच, दंभ आदि लम्बे अरसे तक करके अपनी महत्ता लोगों को दिखाते हुए उस छल करते हुए उन्होंने तिर्यंचपन पाया। सूत्र-२९६-२९८ यहाँ भी कईं व्याधि रोग, दुःख और शोक का भाजन बने । दरिद्रता और क्लेश से पराभवित होनेवाला कईं लोगों की नफरत पाता है। उसके कर्म के उदय के दोष से हमेशा फिक्र से क्षीण होनेवाले देहवाला इर्षा-विषाद समान अग्नि ज्वाला से हमेशा धणधण-जल रहे शरीरवाले होते हैं । ऐसे अज्ञान बाल-जीव कईं दुःख से हैरानपरेशान होते हैं । उसमें उनके दुश्चरित्र का ही दोष होता है। इसलिए वो यहाँ किस पर गुस्सा करे? सूत्र - २९९-३०० इस तरह व्रत-नियम को तोड़ने से, शील के खंडन से, असंयम में प्रवर्तन करने से, उत्सूत्रप्ररूपणा मिथ्या मार्ग की आचरणा-पवर्ताव से, कई तरह की प्रभु की आज्ञा से विपरीत आचरण करने से, प्रमादाचरण सेवन से, कुछ मन से या कुछ वचन से या कुछ अकेली काया से करने से, करवाने से और अनुमोदन करने से मन, वचन, काया के योग का प्रमादाचरण सेवन से-दोष लगता है। सूत्र-३०१ यह लगनेवाले दोष की विधिवत त्रिविध से निंदा, गर्हा, आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त किए बिना दोष की शुद्धि नहीं होती। सूत्र - ३०२ शल्यसहित रहने से अनन्त बार गर्भ में १, २, ३, ४, ५, ६ मास तक उसकी हड्डियाँ, हाथ, पाँव, मस्तक आकृति न बने, उसके पहले भी गर्भ के भीतर विलय हो जाता है यानि गर्भ पीगल जाता है। सूत्र-३०३-३०६ मानव जन्म मिलने के बावजूद वह कोढ़-क्षय आदि व्याधिवाला बने, जिन्दा होने के बावजूद भी शरीर में कृमि हो । कईं मक्खियाँ शरीर पर बैठे, बणबणकर उड़े, हमेशा शरीर के सभी अंग सड़ जाए, हड्डियाँ कमझोर बने आदि ऐसे दुःख से पराभव पानेवाला अति शर्मीला, बूरा, गर्हणीय कईं लोगों को उद्वेग करवानेवाला बने, नजदीकी रिश्तेदारों को और बन्धुओं को भी अनचाहा उद्वेग करवानेवाला होता है । ऐसे अध्यवसाय-परिणाम विशेष से अकाम-निर्जरा से वो भूत-पिशाचपन पाए । पूर्वभव के शल्य से उस तरह के अध्यवसाय विशेष से कईं भव के उपार्जन किए गए कर्म से दशों दिशा में दूर-दूर फेंका जाए कि जहाँ आहार और जल की प्राप्ति मुश्किल हो, साँस भी नहीं ली जाए, ऐसे विरान अरण्य में उत्पन्न हो । सूत्र-३०७-३०९ या तो एक-दूसरे के अंग-उपांग के साथ जुड़े हुए हों, मोह-मदिरा में चकचूर बना, सूर्य कब उदय और अस्त होता है उसका जिसे पता नहीं चलता ऐसे पृथ्वी पर गोल कृमिपन से उत्पन्न होते हैं । कृमिपन की वहाँ भवदशा और कायदशा भुगतकर कभी भी मानवता पाते हुए लेकिन नपुंसक उत्पन्न होता है । नपुंसक होकर अति क्रूर-घोर-रौद्र परिणाम का वहन करते और उस परिणामरूप पवन से जलकर-गीरकर मर जाता है और मरकर वनस्पति-काय में जन्म लेता है। सूत्र - ३१०-३१३ वनस्पतिपन पाकर पाँव ऊपर और मुँह नीचे रहे वैसे हालात में अनन्तकाल बीताते हुए बेइन्द्रियपन न पा सके वनस्पतिपन की भव और कायदशा भुगतकर बाद में एक, दो, तीन, चार, (पाँच) इन्द्रियपन पाए । पूर्व किए मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 21Page Navigation
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