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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - १४७५-१४८२
आलोचना, निन्दा, गर्हणा करके प्रायश्चित्त करके निःशल्य भिक्षु पहली छ प्रतिज्ञा की रक्षा न करे तो फिर उसमें भयानक परीणामवाले जो अप्रशस्त भाव सहित अतिक्रम किया हो, मृषावाद, विरमण नाम के दूसरे महाव्रत में तीव्र राग या द्वेष से निष्ठुर, कठिन, कड़े, कर्कश वचन बोलकर महाव्रत का उल्लंघन किया हो, तीसरे अदत्तादान विरमण महाव्रत में रहने की जगह माँगे बिना मालिक की अनुमति लिए बिना उपभोग किया हो या अनचाहा स्थान मिला हो, उसमें राग-द्वेष रूप अप्रशस्त भाव हो उसमें तीसरे महाव्रत का अतिक्रमण, चोथा मैथुन विरमण नाम के महाव्रत में शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श और प्रविचार के विषय में जो अतिक्रमण हुआ हो, पाँचवें परिग्रह विरमण नाम के महाव्रत के विषय में पाने की अभिलाषा, प्रार्थना, मूर्छा, शुद्धि-कांक्षा, गँवाई हुई चीज का शोक उसके रूप जो लोभ वो रौद्र ध्यान की वजह समान है । इन सब में पाँचवें व्रत में दोष गिने हैं । रात को भूख लगेगी ऐसा सोचकर दिन में ज्यादा आहार लिया, सूर्योदय या सूर्यास्त का शक होने के बावजूद आहार ग्रहण किया हो उस रात्रि भोजन विरमण व्रत में अतिक्रम दोष बताया हो । आलोचना, निन्दना, गर्हणा प्रायश्चित्त करके शल्य रहित बना हो लेकिन जयणा को न समझता हो तो सुसढ़ की तरह भवसंसार में भ्रमण करनेवाला होता है। सूत्र - १४८३
गवंत ! वो सुसढ़ कौन था ? वो जयणा किस तरह की थी या अज्ञानता की वजह से आलोचना, निन्दना, गर्हणा प्रायश्चित्त सेवन करने के बावजूद उसका संसार नष्ट नहीं हुआ ? हे गौतम ! जयणा उसे कहते हैं कि जो अठ्ठारह हजार शील के अंग, सत्तरह तरह का संयम, चौदह तरह के जीव का भेद, तेरह क्रिया स्थानक, बाह्य अभ्यंतर-भेदवाले बारह तरह के तप, अनुष्ठान, बारह तरह की भिक्षुप्रतिमा, दश तरह का श्रमणधर्म, नौ तरह की ब्रह्मचर्य की गुप्ति, आँठ तरह की प्रवचनमाता, सात तरह की पानी और पिंड की एषणा, छ जीवनिकाय, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति सम्यग्-दर्शन, ज्ञान, चारित्र समान रत्नत्रयी आदि संयम अनुष्ठान को भिक्षु निर्जन-निर्जल अटवी दुष्काल व्याधि आदि महा आपत्ति उत्पन्न हुई हो, अन्तर्मुहूर्त केवल आयु बाकी हो, प्राण गले में अटक गए हों तो भी मन से वो अपने संयम का खंडन नहीं करते । विराधना नहीं करते, नहीं करवाते, अनुमोदना नहीं करते । यावत् जावज्जीवपर्यन्त आरम्भ नहीं करते या करवाते इस तरह की पूरी जयणा जाननेवाले, पालन करनेवाले जयणा के भक्त हैं, जयणा ध्रुवरूप से पालनेवाले हैं, जयणा में निपुण है, वो जयणा से परिचित है । इस सुसढ़ की काफी विस्मय करवानेवाली बड़ी कथा है।
अध्ययन-७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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