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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक तो वो धर्म है । समग्र असुख, दारिद्रय, संताप, उद्वेग, अपयश, झूठे आरोप, बुढ़ापा, मरण आदि समग्र भय को सर्वथा नष्ट करनेवाला, जिसकी तुलना में कोई न आ सके वैसा सहायक, तीन लोक में बेजोड़ नाथ हो तो केवल एक धर्म है।
इसलिए अब परिवार, स्वजनवर्ग, मित्र, बन्धु वर्ग, भंडार आदि आलोक की चीजों से प्रयोजन नहीं है । और फिर यह ऋद्धि-समृद्धि इन्द्र धनुष, बीजली, लत्ता के आटोप से ज्यादा चंचल, स्वप्न और इन्द्र जल समान देखने के साथ ही पल में गुम होनेवाली, नाशवंत, अध्रव, अशाश्वत, संसार की परम्परा बढानेवाला, होने के कारण रूप, सद्गति के मार्ग में विघ्न करनेवाला, अनन्त दुःख देनेवाला है । अरे लोगो ! धर्म के लिए यह समय काफी दुर्लभ है । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप धर्म को साधनेवाला, आराधना करवानेवाला, अनुपम सामग्रीयुक्त ऐसा समय फिर नहीं मिलेगा । और फिर मिला हुआ यह शरीर हमेशा रात-दिन हरएक पल में और हरएक समय में टुकड़े टुकड़े होकर सड़ गया है । दिन-प्रतिदिन शिथिल होता जाता है । घोर, निष्ठुर, असभ्य, चंड़, जरा समान, वज्र शिला के प्रतिघात से टुकड़े-टुकड़े होकर सैंकड़ो पड़वाले जीर्ण मिट्टी के हांडी समान, किसी काम में न आए ऐसा, पूरी तरह बिनजरुरी बन गया है। नए अंकुर पर लगे जलबिन्दु की तरह अचानक अर्धपल के भीतर एकदम यह जीवित पेड़ पर से उड़ते हुए पंछी की तरह उड़ जाते हैं । परलोक के लिए भाथा उपार्जन न करनेवाले को यह मानव जन्म निष्फल है तो अब छोटे-से छोटा प्रमाद भी करने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ।
यह मनुष्य रूप में सर्वकाल मित्र और शत्रु के प्रति समान भाववाले बनना चाहिए । वो इस प्रकार समग्र जीव के प्राण के अतिपात की त्रिविध-त्रिविध से विरति, सत्य वचन बोलना, दाँत खुतरने की शलाका समान या लोच करने की भस्म समान निर्मुल्य चीज भी बिना दिए ग्रहण न करना । मन, वचन, काया के योग सहित अखंडित अविराधित नवगुप्ति सहित परम पवित्र, सर्वकाल दुर्धर ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना । वस्त्र, पात्र, संयम के उपकरण पर भी निर्ममत्व, अशन-पानादिक चार आहार का रात को त्याग करना, उद्गम-उत्पादना एषणादिक में पाँच दोष से मुक्त होना, परिमित समय भोजन करना, पाँच समिति का शोधन करना, तीन गप्ति इर्यासमिति आदि भावना, अशनादिक तप के उपधान का अनुष्ठान करना । मासादिक भिक्षु की बारह प्रतिमा, विचित्र तरह के द्रव्यादिक अभिग्रह, अस्नान, भूमिशयन, केशलोच, शरीर की टापटीप न करना, हमेशा सर्वकाल गुरु की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करना । क्षुधा प्यास आदि परिषह सहना । दिव्यादिक उपसर्ग पर विजय पाना । मिले या न मिले दोनों में समभाव रखना । या मिले तो धर्मवृद्धि, न मिले तो तपोवृद्धि वैसी भावना रखना।
ज्यादा कितना बयाँ करे ? अरे लोगों ! यह अठ्ठारह हजार शीलांग के बोझ बिना विश्रान्ति से श्री महापुरुष से वहन कर सके वैसा काफी दुर्धर मार्ग वहन करने के लायक है । विशाद पाए बिना तो बाहा से यह महासागर तैरने के समान यह मार्ग है । यह साधुधर्म स्वाद रहित मिट्टी के नीवाले का भक्षण करने के समान है । काफी तीक्ष्ण पानीदार भयानक तलवार की धार पर चलने के समान संयम धर्म है । घी आदि से अच्छी तरह से सींचन किए गए अग्नि की ज्वाला श्रेणी का पान करने के समान चारित्र धर्म है । सूक्ष्म पवन से बँटवा भरने के जैसा कठिन संयम धर्म है । गंगा के प्रवाह के सामने गमन करना, साहस के तराजू से मेरु पर्वत नापना, एकाकी मानव धीरता से दुर्जय चातुरंग सेना को जीतना, आपसी उल्टी दिशा में भ्रमण करते आँठ चन्द्र के ऊपर रही पूतली की दाँई आँख बाँधना, समग्र तीन भुवन में विजय प्राप्त करके निर्मल, यश, कीर्ति की जयपताका ग्रहण करना, इन सबसे भी धर्मानुष्ठान से किसी भी अन्य चीज दुष्कर नहीं है यानि उससे सभी चीजों को सिद्धि होती है। सूत्र-१४८५-१४८७
मस्तक पर बोझ विसामा लेते-लेते वहन किया जाता है । महान शील का बोझ विश्रान्ति रहित जीवनपर्यन्त वहन किया जाता है । इसलिए सारभूत पुत्र द्रव्य आदि का स्नेह छोड़कर निःसंग होकर बिना खेद सर्वोत्तम चारित्र धर्म सेवो । आडम्बर, झूठी प्रशंसा, वंचना, धर्म के वैसे व्यवहार नहीं होते । मायादिक शल्य, छलभाव रहित धर्म है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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