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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक किसी दिन पीछेहठ न करनेवाले, जीवन का अन्त करनेवाले, अतुलबल, पराक्रमी, महाबलवाले योद्धा आ गए।
इस समय कुमार के चरण में गिरकर - प्रत्यक्ष देखे प्रमाण से मरण के भय से बेचैन होने के कारण से अपने कुल क्रमगत पुरुषकार की परवाह किए बिना राजा पलायन हो गया । एक दिशा प्राप्त करके परिवार सहित वो राजा भागने लगा । हे गौतम ! उस समय कुमारने चिन्तवन किया कि मेरे कुलक्रम में पीठ बताना ऐसा किसी से नहीं हुआ । दूसरी ओर अहिंसा लक्षण धर्म को जाननेवाले और फिर प्राणातिपात के लिए प्रत्याख्यानवाले मुझ पर प्रहार करना उचित नहीं है | तो अब मुझे क्या करना चाहिए ? या आगारवाले भोजन पानी के त्याग के पच्चक्खाण करूँ? एक केवल नगर से कुशील का नाम ग्रहण करने में - भी इतना बड़ा नुकसान कार्य खड़ा हुआ | तो अब मुझे अपने शील की कसौटी भी यहाँ करना । ऐसा सोचकर कुमार कहने लगा कि - यदि मैं केवल वाचा से भी कुशील बनूँ तो इस राजधानी में से क्षेम कुशल अक्षत शरीरवाला नहीं नीकल सकूँगा । यदि मैं मन, वचन, काया ऐसे तीन तरह के सर्व तरीके से शीलयक्त बनँ तो मेरे पर यह काफी तीक्ष्ण भयानक जीव का अन्त करनेवाले हथियार से वार मत करना । 'नमो अरिहंताणं, नमो अरिहंताणं' ऐसे बोल को जितने में श्रेष्ठ तोरणवाले दरवज्जे के द्वार की ओर चलने लगे । जितने में थोड़ी भूमि के हिस्से में डग भरता था उतने में शोर करते हुए किसीने कहा
कि
भिक्षुक के वेश में यह राजा जाते है । ऐसा कहकर आनन्द में आकर कहने लगा कि-हर लो, हर लो, मारो मारो, इत्यादिक शब्द बोलते-बोलते तलवार आदि शस्त्र उठाकर प्रवर बलवाले योद्धा जैसे वहाँ दौड़कर आए, काफी भयानक जीव का अन्त करनेवाले, शत्रु सैन्य के योद्धा आ गए । तब खेद रहित धीरे धीरे निर्भयता से त्रस हुए बिना अदीन मनवाले कुमारने कहा कि अरे दुष्ट पुरुष ! ऐसे तामस भाव से तुम हमारे पास आओ । कईं बार शुभ अध्यवसाय से इकट्ठे किए पुण्य की प्रकर्षतावाला मैं ही हूँ | कुछ राजा तुम्हारे सच्चे शत्रु है । तुम ऐसा मत बोलना कि हमारे भय से राजा अदृश्य हुआ है । यदि तुममें शक्ति, पराक्रम हो तो प्रहार करो । जैसे इतना बोला वैसे उसी पल वो सब रूक गए।
हे गौतम ! शीलालंकृत् पुरुष की बोली देवता को भी अलंघनीय है। वो निश्चल देहवाला बना । उसके बाद घस करते मूर्छा पाकर चेष्टा रहित होकर भूमि पर कुमार गिर पड़ा । हे गौतम ! उस अवसर पर कपटी और मायावी उस अधम राजाने सर्व भ्रमण करते लोगों को और सर्वत्र रहे धीर, समर्थ, भीरु, विचक्षण, मूरख, शूरवीर, कायर, चतुर, चाणक्य समान बुद्धिशाली, काफी प्रपंच से भरे संधि करवानेवाले, विग्रह करवानेवाले, चतुर राजसेवक आदि पुरुषों को कहा कि अरे ! इस राजधानी में से तुम जल्द हीरे, नीलरत्न, सूर्यकान्त, चन्द्रकान्तमणि, श्रेष्ठमणि और रत्न के ढेर, हेम अर्जुन तपनीय जांबुनद सुवर्ण आदि लाख भार प्रमाण ग्रहण करो । ज्यादा क्या कहे? विशुद्ध बहु जातिवंत ऐसे मोती विद्रुम - परवाला आदि लाखो खारि से भरे (उस तरह का उस समय चलता पाली समान नाप विशेष) भंडार चतुरंग सेना को दे दे, खास करके वो सुगृहित सुबह में ग्रहण करने के लायक नामवाले ऐसे उस पुरुषसिंह विशुद्ध शीलवाले उत्तमकुमार के समाचार दो जिससे मैं शान्ति पा सकूँ।
हे गौतम ! उस के बाद राजा को प्रणाम करके वो राजसेवक पुरुष उतावले वेग से चपलता से पवन समान गति से चले वैसे उत्तम तरह के अश्व पर आरूढ़ होकर वन में, झाड़ी में, पर्वत की गुफा में, दूसरे एकान्त प्रदेश में चले गए । पलभर में राजधानी में पहुँचे । तब दाँई और बाँई भूजा के कर पल्लव से मस्तक के केश का लोच करते हुए राजकुमार दिखाई दिए । उसके सामने सुवर्ण के आभूषण और वस्त्र सजावट युक्त दश दिशाओं को प्रकाशित करते जयजय कार के मंगल शब्द उच्चारते, रजोहरण पकड़े हुए और हस्तकमल की रची अंजलि युक्त देवता उसे देखकर विस्मयित मनवाले लेपकर्म की बनी प्रतिमा की तरह स्थिर खड़े रहे।
इस समय हे गौतम ! हर्षपूर्ण हृदय और रोमांच कंचुक से आनन्दित बने शरीरवाले आकाश में रहे प्रवचन देवता ने 'नमो अरिहंताणं' ऐसा उच्चारण कर के उस राजकुमार को इस प्रकार कहा कि -
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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