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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक है। ऐसी स्त्री को ऐसे रूप कान्ति शोभा लावण्य सौभाग्य शोभा न हो, ऐसा चिन्तवन करके विलाप करने लगा सूत्र - १५१५
इस प्रकार के पापकर्म करने में रक्त ऐसे मुझ पर धड़गड़ आवाज करते वज्र तूट न पड़े तो फिर यहाँ से कहाँ जाकर मैं शुद्ध बन सकूँगा ? सूत्र - १५१६
ऐसा बोलकर महापाप कर्म करनेवाला वो सोचने लगा कि-क्या अब मैं शस्त्र के द्वारा मेरे गात्र को तिलतिल जितने टकडे करके छेद कर डालँ? या तो ऊंचे पर्वत के शिखर से गिरकर अनन्त पाप सम इस दुष्ट शरीर के टुकड़े कर दूँ ? या तो लोहार की शाला में जाकर अच्छी तरह से तपाकर लाल किए लोहे की तरह मोटे घण से कोई टीपे उस तरह लम्बे अरसे तक मेरे शरीर को टीपवाऊं? या तो क्या मैं अच्छी तरह से मेरे शरीर के बीच में करवत के तीक्ष्ण दाँत से कटवाऊं और उसमें अच्छी तरह से ऊबाले हुए सीसे, ताम्र, काँस, लोह, लुण और उसनासाजी खार के रस डालूँ ? या फिर मेरे अपने हाथ से ही मेरा मस्तक छेद डालूँ ? या तो मैं - मगरमच्छ के घर में प्रवेश करूँ या फिर दो पेड़ के बीच मुझे रस्सी से बाँधकर लटकाकर नीचे मुँह और पाँव ऊपर हो उस तरह रखकर नीचे अग्नि जलाऊं ? ज्यादा क्या कहे ? मसाण भूमि में पहुँचकर काष्ठ की चिता में मेरे शरीर को जला डालूँ? ऐसा सोचकर हे गौतम ! वहाँ बड़ी चित्ता बनवाई, उसके बाद समग्र लोक की मोजूदगी में लम्बे अरसे तक अपनी आत्मा की निन्दा करके सब लोगों को जाहिर किया कि मैंने न करने के लायक इस प्रकार का अप कार्य किया है । ऐसा कहकर चिता पर आरूढ़ हुआ तब भवितव्यता योग से उस प्रकार के द्रव्य और चूर्णि के योग के संसर्ग से वो सब काष्ट हैं - ऐसा मानकर फूंकने के बावजूद कई तरह के उपाय करने के बावजूद भी अग्नि न जला। तब फिर लोगोंने नफरत की कि यह अग्नि भी तुम्हें सहारा नहीं दे रहा । तुम्हारी पाप परिणति कितनी कठिन है, कि यह अग्नि भी नहीं जला रहा । ऐसा कहकर उन लोगों ने दोनों को गोकुल में से नीकाल बाहर किया
उस अवसर पर दूसरे नजदीकी गाँव में से भोजन पानी ग्रहण करके उसी मार्ग उद्यान के सन्मुख आनेवाले मुनि युगल को देखा । उन्हें देखकर उनके पीछे वो दोनों पापी गए । उद्यान में पहुंचे तो वहाँ सारे गुण समूह को धारण करनेवाले चार ज्ञानवाले काफी शिष्यगण से परिवरेल, देवेन्द्र और नरेन्द्र से चरणारविंद में नमन कराते, सुगृहीत नामवाले जगाणंद नाम के अणगार को देखा । उन्हें देखकर उन दोनों ने सोचा कि यह महायशवाले मुनिवर के पास मेरी विशुद्धि कैसे हो उसकी माँग करूँ। ऐसा सोचकर प्रणाम करने के पूर्वक उस गण को धारण करने वाले गच्छाधिपति के सामने यथायोग्य भूमि पर बैठा । उस गणस्वामीने सुज्ञशिव को कहा कि - अरे देवानुप्रिया शल्य रहित पाप की आलोचना जल्द करके समग्र पाप का अंत करनेवाले प्रायश्चित्त कर । यह बालिका तो गर्भवती होने से उसका प्रायश्चित्त नहीं है, कि जब तक उस बच्चे को जन्म नहीं देगी।
हे गौतम ! उसके बाद अति महा संवेग की पराकाष्ठा पाया हआ वो सज्ञशिव जन्म से लेकर तमाम पापकर्म की निःशल्य आलोचना देकर (बताकर) गुरु महाराजाने बताए घोर अति दुष्कर बड़े प्रायश्चित्त का सेवन कर के उसके बाद अति विशुद्ध परिणाम युक्त श्रमनपन में पराक्रम करके छब्बीस साल और तेरह रात-दिन तक काफी घोर वीर उग्र कष्टकारी दुष्कर तपःसंयम यथार्थ पालन करके और एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह मास तक लगातार एकसाथ उपवास करके शरीर की टापटीप या ममता किए बिना उसने सर्व स्थानक में अप्रमाद रहित हमेशा रात-दिन हर समय स्वाध्याय ध्यानादिक में पराक्रम करके बाकी कर्ममल को भस्म करके अपूर्वकरण करके क्षपकश्रेणी लेकर अंतगड़ केवली होकर सिद्ध हुए। सूत्र-१५१७
हे भगवंत ! उस प्रकार का घोर महापाप कर्म आचरण करके यह सुज्ञशिव जल्द थोड़े काल में क्यों निर्वाण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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