Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 148
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पाया ? हे गौतम ! जिस प्रकार के भाव में रहकर आलोयणा दी, जिस तरह का संवेग पाकर ऐसा घोर दुष्कर बड़ा प्रायश्चित्त आचरण किया । जिस प्रकार काफी विशुद्ध अध्यवसाय से उस तरह का अति घोर वीर उग्र कष्ट करनेवाला अति दुष्कर तप-संयम की क्रिया में व्यवहार करते अखंड़ित-अपिराधित मूल उत्तरगुण का पालन करते निरतिचार श्रामण्य का निर्वाह करके जिस तरह के रौद्र ध्यान आर्तध्यान से मुक्त होकर राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, मद, भय, गारव आदि दोष का अन्त करनेवाले, मध्यस्थ भाव में रहे, दीनता रहित मानसवाले सुज्ञशिव श्रमण ने बारह साल की संलेखना करके पादपोपगमन अनशन अंगीकार करके उस तरह के एकान्त शुभ अध्यवसाय से केवल एक ही सिद्धि न पाए, लेकिन यदि शायद दूसरों के किए कर्म का संक्रम कर सकता हो तो सर्वे भव्य सत्त्व के समग्र कर्म का क्षय और सिद्धि पाए । लेकिन दूसरों के किए कर्म के संक्रम कभी किसी का नहीं होता । जो कर्म जिसने उपार्जन किया हो वो उसको ही भुगतना चाहिए । हे गौतम ! जब योग का निरोध करनेवाले बने तब समग्र लेकिन आँठ कर्मराशि के छोटे काल के विभाग से ही नष्ट करनेवाले बने । समग्र कर्म आने के और अच्छी तरह से बँध करनेवाले और योग का निरोध करनेवाले का कर्मक्षय देखा है, लेकिन कालगिनती से कर्मक्षय नहीं देखा । कहा है किसूत्र - १५१८-१५२३ काल से तो कर्म खपाता है, काल के द्वारा कर्म बाँधता है, एक बाँधे, एक कर्म का क्षय करे, हे गौतम ! समय तो अनन्त है, योग का निरोध करनेवाला कर्म वेदता है लेकिन कर्म नहीं बाँधते । पुराने कर्म को नष्ट करते हैं, नए कर्म की तो उसे कमी ही है, इस प्रकार कर्म का क्षय जानना । इस विषय में समय की गिनती न करना । अनादि समय से यह जीव है तो भी कर्म पूरे नहीं होते । कर्म का क्षयोपशम होने के कारण से जब विरति धर्म का विकास हुआ, तब-कालक्षेत्र भव और भाव द्रव्य प्राप्त करके यावत् अप्रमादी होकर जीव कर्म खपाए तब जीव के कोटि मार्ग में आगे बढ़े, जो प्रमादी हो तो वो अनन्तकाल का कर्म बाँधे, चार गति में सर्वकाल अति दुःखी जीव वास करनेवाले होते हैं, इसलिए काल, क्षेत्र, भव, भाव पाकर बुद्धिवाली आत्मा शीघ्र कर्म का क्षय करता है। सूत्र-१५२४ हे भगवंत ! वो सुज्ञश्री कहाँ उत्पन्न हुई ? हे गौतम ! छठी नरक पृथ्वी में, हे भगवंत ! किस कारण से ? उसके गर्भ का नौ मास से ज्यादा समय पूर्ण हुआ तब सोचा कि कल सुबह गर्भ गिरा दूंगी । इस प्रकार का अध्यवसाय करते हुए उसने बच्चे को जन्म दिया । जन्म देने के बाद तुरन्त उसी पल में मर गई । इस कारण से सुज्ञश्री छठ्ठी नरक में गई। हे भगवंत ! जिस बच्चे को उसने जन्म दिया फिर मर गई वो बच्चा जिन्दा रहा कि नहीं? हे गौतम ! जीवित रहा है । हे भगवंत ! किस तरह ? हे गौतम ! जन्म देने के साथ ही वो बच्चा उस प्रकार की ओर चरबी लहूँ गर्भ को लिपटकर रहे, बदबूवाले पदार्थ, परू, खारी बदबूवाली अशुचि चीजों से लीपटा अनाथ विलाप करनेवाले उस बच्चे को एक श्वानने कुम्हार के चक्र पर स्थापना करके भक्षण करने लगा । इसलिए कुम्हार ने उस बच्चे को देखा, तब उसकी पत्नी सहित कुम्हार बच्चे की और दोड़ा । बच्चे के शरीर को नष्ट किए बिना श्वान भाग गया । तब करुणापूर्वक हृदयवाले कुम्हार को लड़का न होने से यह मेरा पुत्र होगा - ऐसा सोचकर कुम्हार ने उस बच्चे को अपनी बीबी को समर्पण किया । उसने भी सच्चे स्नेह से उसकी देख-भाल करके उस बच्चे को मानव के रूप में तैयार किया । उस कुम्हारने लोकानुवृत्ति से अपने पिता होने के अभिमान से उसका सुसढ़ नाम रखा। हे गौतम ! कालक्रम से सुसाधु का समागम हुआ । देशना सुनकर प्रतिबोध पाया । और उस सुसढ़ने दीक्षा अंगीकार की । यावत् परमश्रद्धा संवेग और वैराग पाया । काफी घोर वीर उग्र कष्ट करके दुष्कर महाकाय क्लेश करते हैं । लेकिन संयम में यतना किस प्रकार करना वो नहीं जानता । अजयणा के दोष से सर्वत्र असंयम के स्थान में अपराध करनेवाला होता है । तब उसे गुरु ने कहा कि - अरे ! महासत्त्वशाली ! तुम अज्ञान दोष के कारण से मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 148

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