Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 140
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक बताए हैं, कर्म ऐसे उन्होंने बाकी अन्य भव में माया की थी उस निमित्त से बाँधे हुए इस कर्म का उदय हुआ है। हे भगवंत ! अन्य भव में उस महानुभाव ने किस तरह माया की, जिससे ऐसा भयानक कर्मोदय हुआ? हे गौतम ! उस गच्छाधिपति का जीव लाख भव के पहले सामान्य राजा की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई । किसी समय शादी के बाद तुरन्त उसका भर्तार मर गया । तब उसके पिताने राजकुमारी को कहा कि, हे भद्रे ! मैं तुम्हें अपने गाँव में से पचास राज्य देता हूँ। उस की आमदनी में से तुम्हारी इच्छा के अनुसार अंधो को, आधे अंगवाले को, जो चल नहीं सकते ऐसे अपंग को, काफी व्याधि वेदना से व्याप्त शरीरवाले को, सभी लोगों से पराभवित, दारिद्र, दुःख, शरीरसीबी से कलंकित लोगों को, जन्म से ही दरिद्र हो उनको, श्रमण को, श्रावक को, बेचैन को, रिश्तेदारों को, जिस किसी को जो इष्ट हो ऐसे भोजन, पानी, वस्त्र यावत् धन, धान्य, सुवर्ण, हिरण्य या समग्र सुख देनेवाले, सम्पूर्ण दया करके अभयदान दो । जिससे भवान्तर में भी सभी लोगों को अप्रियकारिणी सबको पराभव करने के स्थानभूत तुं न बने । और सुवास, पुष्पमाला, तंबोल, विलेपन, अंगराग आदि इच्छा के अनुसार भोग और उपभोग के साधन रहित बने, अपूर्ण मनोरथवाली, दुःख जन्म देनेवाली बीबी वंध्या रंडा आदि दुःखवाली न बने। तब हे गौतम ! उसने तहत्ति करके उस बात को अपनाइ । लेकिन नेत्र से हड़ हड़ करते अश्रुजल से जिसका कपोल का हिस्सा धुल रहा है । खोखरी आवाज में कहने लगी कि ज्यादा बोलने मैं नहीं जानती । यहाँ से आप जाकर जल्द काष्ठ की बड़ी चित्ता बनवाओ कि जिससे मेरे शरीर को उसमें डूबो दूँ । पापिणी ऐसी मुझे अब जीने का कोई प्रयोजन नहीं है । शायद कर्म परिणति को आधीन होकर महापापी स्त्री के चंचल स्वभाव के कारण से आपके इस असामान्य प्रसिद्ध नामवाले पूरे संसार में जिसकी कीर्ति और पवित्र यश भरा हुआ है ऐसे आप के कुल को शायद दाग लगानेवाली बनूँ । यह मेरे निमित्त से अपना सर्व कुल मलीन हो जाए उसके बाद उस राजाने चिन्तवन की कि - वाकइ मैं अधन्य हूँ कि अपुत्रवाले ऐसे मुजे ऐसी रत्न समान बेटी मिले । अहो ! इस बालिका का विवेक । अहो उसकी बुद्धि ! अहो उसकी प्रज्ञा ! अहो उसका वैराग ! अहो उसके कुल को दाग लगानेवाला भीरूपन ! अहो समचुम हर पल यह बालिका वंदनीय है, जिसके ऐसे महान गुण है तो जब तक वो मेरे घर में रहेगी तब तक मेरा महा कल्याण होगा । उसको देखने से, स्मरण करने से, उसके साथ बोलने से आत्मा निर्मल होगा, तो पुत्र रहित मुजको यह पुत्री पुत्रतुल्य है - ऐसा सोचकर राजाने कहा कि - हे पुत्री ! हमारे कुल की रसम के अनुसार काष्ट की चित्ता में रंड़ापा नहीं होता । तो तू शील और श्रावकधर्म रूप चारित्र का पालन कर, दान दे, तुम्हारी ईच्छा के अनुसार पौषध उपवास आदि कर और खास करके जीवदया के काम कर । यह राज्य भी तुम्हारा ही है । उसके बाद हे गौतम ! पिताके इस प्रकार कहने के बाद चित्ता में गिरना बन्द रखके मौन रही। फिर पिताने अंतःपुर के रक्षपाल सेवक को सौंप दिया । उस अनुसार समय बीतने से किसी समय वो राजा मर गया । एक महाबुद्धिशाली महामंत्रीओने इकट्ठे होकर तय किया कि इस राजकुमारी का ही यहाँ राज्याभिषेक कर दे । फिर राज्याभिषेक किया । हे गौतम ! उसके बाद हररोज सभा मंडप में बैठती थी। __अब किसी दिन वहाँ राजसभा में कईं बुद्धिजन, विद्यार्थी, भट्ट, तडिंग, मुसद्दी, चतुर, विचक्षण, मंत्रीजन, महंत आदि सैंकड़ो पुरुष से भरी पड़ी इस सभा मंडप के बीच राजसिंहासन पर बैठे कर्मपरिणति के आधीन राजकुमारीने राग सहित अभिलाषावाले नेत्र से उत्तम रूप लावण्य शोभा की संपत्तिवाली जीव सुन्दर ज्ञानवाले एक उत्तम कुमार को देखा । । कुमार उसके मनोगत भाव को समझ गया । सोचने लगा कि - मुझे देखकर बेचारी यह राजकुमारी घोर अंधकारपूर्ण और अनन्त दुःखदायक पाताल में पहुँच गई । वाकई मैं अधन्य हूँ कि इस तरह का राग उत्पन्न होने के यंत्र समान, पुदगल समूहवाले मेरे देह को देखकर तीतली की तरह कामदीपक में छलांग लगाता है। अब मैं जी क क्या करूँ ? अब मैं जल्द इस पापी शरीर को वोसीराऊं । इसके लिए काफी दुष्कर प्रायश्चित्त करूँगा। समग्र संग का त्याग करने के समान समग्र पाप का विनाश करनेवाले अणगार धर्म को अंगीकार करूँगा। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 140

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