Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 141
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक कईं पूर्वभव में इकट्ठे हुए दुःख से करके छोड़ सके ऐसे पाप बन्धन के समूह को शिथिल करूँगा, ऐसे अव्यवस्थित जीवलोक को धिक्कार है कि जिसमें इन्द्रिय का वर्ग इस तरह पराधीन होता है । अहो कैसी कमनसिबी है कि लोक परलोक के नुकसान की ओर नजर नहीं उठाता । एक जन्म के लिए चित्त का दुराग्रह कैसा हुआ है ? कार्याकार्य की अज्ञानता, मर्यादा रहितपन, तेजरहितपन, लज्जा का भी जिसने त्याग किया है । मुझे इस हालात में पलभर भी देर लगाना उचित नहीं है । दुःख से करके रोका जाए ऐसे तत्काल पाप का आगमन होता हो ऐसे स्थान में रहना जोखिम है। हा हा हा हे निर्लज्ज शत्रु ! अधन्य ऐसी आँठ कर्मराशि इस राज बालिका को आज उदय में आए हैं । यह मेरे कोठार समान पाप शरीर को रूप देखने से उसके नेत्र में राग की अभिलाषा हुई। अब इस देश का त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार करूँ । ऐसा सोचकर कुमारवरने कहा कि - मैं शल्य रहित होकर आप सबकी क्षमा चाहता हूँ | और मेरा किसी अनजाने में भी अपराध हुआ हो तो हरकोई क्षमा दे, त्रिविध-त्रिविध से त्रिकरण शुद्ध से मैं सभामंडप में रहे राजकुल और नगरजन आदि सब की क्षमा माँगता हूँ। ऐसा कहकर बाहर नीकल गया अपने निवासस्थान पर पहुँच गया । वहाँ से रास्ते में खाने का पाथेय ग्रहण किया । झाँक के ढ़ग के तरंग समान सुकुमाल श्वेत वस्त्र के दो खंड़ करके पहना । सज्जन के हृदय समान सरल नेतर लता की सोटी और अर्धढाल बाँये हाथ में ग्रहण की उसके बाद तीनों भुवन के अद्वितीय गुरु ऐसे अरिहंत भगवंत संसार में सबसे श्रेष्ठ धर्म तीर्थंकर की यथोक्त विधि से संस्तवना, स्तुति, नमस्कार करके चलते रहे । ऐसे चलते कुमार काफी दूर देशान्तर में पहुँचे कि जहाँ हिरण्णक्करूड़ी राजधानी थी । वहाँ विशिष्ट गुणवाले धर्माचार्य के आने के समाचार पाने के लिए कुमार खोज करता था और सोचता था कि जब तक विशिष्ट गुणवाले धर्माचार्य का योग न बने तब तक मैं यहीं रूकुं । ऐसे कुछ दिन बीते । कईं देश में फैलनेवाली कीर्तिवाले वहाँ के राजा की सेवा करूँ ऐसा मन में मंत्रणा करके राजा को मिला । योग्य निवेदन किया । राजाने सन्मान किया । सेवा पाई। किसी समय प्राप्त हुए अवसर से उस कुमार को राजाने पूछा कि- हे महानुभाव ! महासत्त्वशालिन् ! यह तुम्हारे हाथ में किसके नाम से अलंकृत मुद्रारत्न सुशोभित है ? इतने अरसे तक तूने कौन-से राजा की सेवा की थी? या तो तुम्हारे स्वामीने तुम्हारा अनादर किस तरह किया ? कुमारने राजा को प्रत्युत्तर दिया कि जिसके नाम से अलंकृत यह मुद्रारत्न है उसकी मैंने इस अरसे तक सेवा की । उसके बाद राजने पछा कि- उसे किस शब्द से बुलाया जाता है ? कुमारने कहा कि- भोजन किए बिना मैं वो चक्षुकुशील अधम का नाम नहीं लूँगा । तब राजाने पूछा कि, अरे महासत्त्वशालिन् ! वो चक्षुकुशील ऐसे शब्द से क्यों बुलाए जाते हैं ? और खाए बिना उसका नाम न लेने की क्या वजह है ? कुमारने कहा कि चक्षुकुशील ऐसा नाम शब्दपूर्वक बोलूँगा नहीं किसी दूसरे स्थान में कभी तुम्हें प्रत्यक्ष पता चलेगा । और फिर किसी शान्ति के पल में वो हकीकत बताऊंगा । खाए बिना उनके नाम का शब्द न बोलना, उस कारण से मैंने उसका नाम नहीं लिया । शायद बिना खाए उस चक्षुकुशील अधम का नाम लूँ तो उस कारण से दिन में पान-भोजन की प्राप्ति न हो सके । तब हे गौतम ! विस्मय पानेवाले राजाने कुतूहल वश जल्द रसवंती मँगवाई । राजकुमार और सर्व परिवार के साथ भोजन मंडप में बैठा । अठारह तरह के मिष्टान्न भोजन सुखड़ी, खाजा और अलग अलग तरह की आहार मँगवाया। इस समय राजाने कुमार को कहा कि - भोजन कर के बाद बताऊंगा । राजाने फिर से कहा- हे महासत्त्ववान् ! दाइने हाथ में नीवाला है, अब नाम बताओ शायद यदि इस हालात में हमें कोई विघ्न हो तो हमें भी वो पता चले इसलिए नगर सहित सब तुम्हारी आज्ञा से आत्महीत की साधना करे । उसके बाद हे गौतम ! उस कुमारने कहा कि वो चक्षुकुशीलधाम दुरन्त प्रान्त लक्षणवाले न देखने के लायक दुर्जात जन्मवाले उसका ऐसा कुछ शब्द में बोलने के लायक नाम हैं । हे गौतम ! जितने में यह कुमारवरने नाम लिया कि उतने में किसी को पता न चले ऐसे अचानक अकस्मात से को शत्रु के सैन्य ने घेर लिया । बख्तर पहनकर सज्ज ऊपर झंडा लहराते हुए तीक्ष्ण धारवाली तलवार, भाला, चमकीले चक्र आदि शस्त्र जिसके अग्र हस्त में हैं, वध करो ऐसे हण के शब्द से भयानक, कईं युद्ध के संसर्ग में मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 141

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