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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक जीवनभर गुरु के उपदेश से मौनव्रत धारण किया था । दूसरा संयतोने तीन महापाप स्थानक बताए हैं, वो इस प्रकार - अप्काय, अग्निकाय और मैथुन यह तीनों को सर्व उपाय से साधु को खास वर्जन करना चाहिए । उसने भी उस तरह से सर्वथा वर्जन किया था । उस कारण से वो सुलभ बोधि बने।
अब किसी दिन हे गौतम ! कईं शिष्य से परिवरीत उस कुमार महर्षिने अंतिम समय में देह छोड़ने के लिए सम्मेत शिखर पर्वत के शिखर की ओर प्रयाण किया । विहार करते करते कालक्रम उसी मार्ग पर गए कि जहाँ वो राजकुल बालिकावरेन्द्र चक्षकशील थी। राजमंदिर में समाचार दिए वो उत्तम उद्यान में वंदन के लिए स्त्रीनरेन्द्र आए। कुमार महर्षि को प्रणाम करने के पूर्वक परिवार सह यथोचित भूमि स्थान में नरेन्द्र बैठा । मुनेश्वर ने विस्तार से धर्मदेशना की । धर्मदेशना सुनने के बाद परिवार सह स्त्री नरेन्द्र निःसंगता ग्रहण करने के लिए तैयार हुआ।
हे गौतम ! वो यहाँ नरेन्द्रने दीक्षा अंगीकार की । दीक्षा लेने के बाद काफी घोर, वीर, उग्र, कष्टकारी, दुष्कर तप संयम अनुष्ठान क्रिया में रमणता करनेवाले ऐसे वो सभी किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव में ममत्व रखे बिना विहार करते थे । चक्रवर्ती इन्द्र आदि की ऋद्धि समुदाय के देह सुख में या सांसारिक सुख के काफी निस्पृहभाव रखनेवाले ऐसे उनका कुछ समय बीत गया । विहार करते करते सम्मेत पर्वत के शिखर के पास आया
उस के बाद उस कुमार महर्षिने राजकुमार बालिका नरेन्द्र श्रमणी को कहा कि - हे दुष्करकारिके ! तुम शान्त चित्त से सर्वभाव से अंतःकरणपूर्वक पूरे विशुद्ध शल्य रहित आलोचना जल्द से दो क्योंकि आज हम सर्व देह का त्याग करने के लिए कटिबद्ध लक्षवाले बने हैं । निःशल्य आलोचना, निन्दा, गर्हा, यथोक्त शुद्धाशयपूर्वक जिस प्रकार भगवंत ने उपदेश दिया है उस अनुसार प्रायश्चित्त करके शल्य का उद्धार करके कल्याण देखा है जिसमें ऐसी संलेखना की है । उस के बाद राजकुल बालिका नरेन्द्र श्रमणीने यथोक्त विधि से आलोचना की । उसके बाद बाकी रही आलोचना उस महामुनिने याद करवाई-उस समय राजसभा में तुम बैठी थी तब गहस्थ भाव में राग सहित और स्नेहाभिलाष से मुझे देखा था उस बात की आलोचना हे दुष्करकारिके! कर । जिस से तम्हारी सर्वोत्तम शुद्धि हो।
उसके बाद उसने मन में खेद पाकर चपल आशय एवं छल का घर ऐसी पाप स्त्री स्वभाव के कारण से इस साध्वी के समुदाय में हमेशा वास करनेवाली किसी राजा की पुत्री चक्षुकुशील या बूरी नजर करनेवाली है ऐसी मेरी ख्याति शायद हो जाए तो? ऐसा सोचकर हे गौतम ! उस निर्भागिणी श्रमणीने कहा कि-हे भगवंत ! इस कारण से मैंने तुमको रागवाली नजर से देखे न थे कि न तो मैं तुम्हारी अभिलाषा करती थी, लेकिन जिस तरह से तुम सर्वोत्तम रूप तारूण्य यौवन लावण्य कान्ति-सौभाग्यकला का समुदाय, विज्ञान ज्ञानातिशय आदि गुण की समृद्धि से अलंकृत हो, उस अनुसार विषय में निरभिलाषी और धैर्यवाले उस प्रकार हो कि नहीं, ऐसे तुम्हारा नाप तोल के लिए राग सहित अभिलाषावाली नजर जुड़ी थी, लेकिन रागाभिलाषा की ईच्छा से नजर नहीं की थी । या फिर आलोचना हो । उसमें दूसरा क्या दोष है ? मुझे भी यह गुण करनेवाला होगा । तीर्थ में जाकर माया, छल करने से क्या फायदा? कुमारमुनि सोचने लगा कि - काफी महा संवेग पाई हुई ऐसी स्त्री को सो सोनैया कोई दे तो संसार में स्त्री का कितना चपल स्वभाव है वो समज सकते हैं या फिर उसके मनोगत भाव पहचानना काफी दुष्कर है।
ऐसा चिन्तवन करके मुनिवरने कहा कि चपल समय में किस तरह का छल पाया ? अहो ! इस दुर्जन चपल स्त्रियों के चल-चपल अस्थिर-चंचल स्वभाव । एक के लिए मानस स्थापन न करनेवाली, एक भी पल स्थिर मन न रखनेवाली, अहो दुष्ट जन्मवाली, अहो समग्र अकार्य करनेवाली, भाँड़नेवाली, स्खलना पानेवाली, अहो समग्र अपयश, अपकीर्ति में वद्धि करनेवाली, अहो पाप कर्म करने के अभिमानी आशयवाली, परलोक में अंधकार के भीतर घोर भयानक खुजली, ऊबलते कडाँइ में तेल में तलना, शामली वृक्ष, कुंभी में पकना आदि दुःख सहने पड़े ऐसी नारकी में जाना पड़ेगा । उसके भय बिना चंचल स्त्री होती है।
इस तरह कुमार श्रमण ने मन में काफी खेद पाया । उसकी बात न अपनाते हुए धर्म में एक रसिक ऐसे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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