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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, ‘महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पुत्रने चिन्तवन किया कि आम तोर पर माता हमारे चावल छिन लेने के लिए आती हुई दिखती है, यदि वो पास आएगी तो मैं उसे मार डालूँगा - ऐसा चिन्तवन करते पुत्रने दूर रहे और पास आनेवाली ब्राह्मणी माँ को कड़े शब्द में कहा कि - हे भट्टीदारिका ! यदि तू यहाँ आएगी तो फिर तुम ऐसा मत कहना कि मुझे पहले न कहा । यकीनन मैं तुम्हें मार डालूँगा । ऐसा अनिष्ट वचन सुनकर उल्कापात से वध की हुई हो वैसे धस करते हुए भूमि पर गिर पड़ी। मूर्छावश ब्राह्मणी बाहर से वापस न आई इसलिए महीयारी ने कुछ देर राह देखने के बाद सुज्ञश्री को कहा कि अरे बालिका ! हमें देर हो रही है, इसलिए तुम्हारी माँ को कहो कि तुम हमे डाँगर का पाला दो । यदि डाँगर का पाला न दिखे या न मिले तो उसके बजाय मुग का पाला दो । तब सुज्ञश्री धान्य रखने के कोठार में पहुंची और देखती है तो दूसरी अवस्था पाई हुई ब्राह्मणी को देखकर सुज्ञश्री हाहारव करके शोर मचाने लगी । वो सुनकर परिवार सहित वो गोविंद ब्राह्मण और महियारी आ पहुँचे । पवन और जल से आश्वासन पाकर उन्होंने पूछा कि - हे भट्टीदारिका ! यह तुम्हें अचानक क्या हो गया ?
तब सावध हुई ब्राह्मणी ने प्रत्युत्तर में बताया कि अरे ! तुम रक्षा रहित ऐसी मुझे झहरीले साँप के डंख मत दिलाओ । निर्जल नदी में मुझे मत खड़ा करो । अरे रस्सी रहित स्नेहपाश में जकड़ी हुई ऐसी मुझे मोह में स्थापित मत करो । जैसे कि यह मेरे पुत्र, पुत्री, भतीजे हैं । यह पुत्रवधू, यह जमाई, यह माता, यह पिता है, यह मेरे भर्तार है, यह मुझे इष्ट प्रिय मनचाहे परिवारवर्ग, स्वजन, मित्र, बन्धुवर्ग है । वो यहाँ प्रत्यक्ष झूठी मायावाले हैं । उनकी
ओर से बन्धुपन की आशा मृगतृष्णा है,अपनेपन का झूठा भ्रम होता है; परमार्थ से सोचा जाए तो कोई सच्चे स्वजन नहीं है जब तक स्वार्थ पूरा होता है तब तक माता, पिता, पुत्री, पुत्र, जमाई, भतीजा, पुत्रवधू आदि सम्बन्ध बनाए रखते हैं। तब तक ही हर एक को अच्छा लगता है । इष्ट मिष्ट प्रिय स्नेही परिवार के स्वजन वर्ग मित्र बन्धु परिवार आदि तब तक ही सम्बन्ध रखते हैं कि जब तक हरएक का अपना मतलब पूरा होता है।
___अपने कार्य की सिद्धि में, विरह में कोई किसी की माता नहीं, न कोई किसी के पिता, न कोई किसी की पुत्री, न कोई किसी का जमाई, न कोई कसी का पुत्र, न कोई किसी की पत्नी, न कोई किसी का भर्तार, न कोई किसी का स्वामी, न कोई किसी के इष्ट मिष्ट प्रियकान्त परिवार स्वजन वर्ग मित्र बन्धु परिवार वर्ग हैं । क्योंकि देखो तब प्राप्त हुए कुछ ज्यादा नौ वर्ष तक कुक्षि में धारण करके कईं मिष्ट मधुर उष्ण तीखे सूखे स्निग्ध आहार करवाए, स्नान पुरुषन किया, उसका शरीर कपड़े धोए, शरीर दबाया, धन-धान्यादिक दिए । उसे उछेरने की महाकोशीश की। उस समय ऐसी आशा रखी थी कि पुत्र के राज में मेरे मनोरथ पूर्ण होंगे । और स्नेहीजन की आशा पूरी करके मैं काफी सुख में मेरा समय पसार करूँगी । मैंने सोचा था उससे बिलकुल विपरीत हकीकत बनी है । अब इतना जानने और समझने के बाद पति आदि पर आधा पल भी स्नेह रखना उचित नहीं है । जिस अनुसार मेरे पुत्र का वृत्तान्त बना है उसके अनुसार घर-घर भूतकाल में वृत्तान्त बने हैं । वर्तमान में बनते हैं और भावि में भी बनते रहेंगे। वो बन्धुवर्ग भी केवल अपने कार्य सिद्ध करने के लिए घटिका मुहूर्त उतना समय और स्नेह परीणाम टिकाकर सेवा करता है । इसलिए हे लोग ! अनन्त संसार के घोर दुःख देनेवाले ऐसे यह कृत्रिम बन्धु
और संतान का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । इसलिए अब रात-दिन हमेशा उत्तम विशुद्ध आशय से धर्म का सेवन करो।
धर्म ही धन, इष्ट, प्रिय, कान्त, परमार्थ से हितकारी, स्वजन वर्ग, मित्र, बन्धुवर्ग है । धर्म ही सुन्दर दर्शनीय रूप करनेवाला, पुष्टि करनेवाला, बल देनेवाला है। धर्म ही उत्साह करवानेवाला, धर्म ही निर्मल, यश, कीर्ति की साधना करनेवाला है । धर्म ही प्रभावना करवानेवाला, श्रेष्ठतम सुख की परम्परा देनेवाला हो तो वो धर्म है । धर्म ही सर्व तरह के निधान स्वरूप है। आराधनीय है। पोषने के लायक है, पालनीय है। करणीय है, आचरणीय है, सेवनीय है, उपदेशनीय है, कथनीय है, पढ़ने के लायक है, प्ररूपणीय है, करवाने के लायक है, धर्म ध्रुव है, अक्षय है, स्थिर रहनेवाला है । समग्र सुख का भंडार है, धर्म अलज्जनीय है, धर्म अतुल बल, वीर्य, सम्पूर्ण सत्त्व, पराक्रम सहितपन दिलानेवाला होता है । प्रवर, श्रेष्ठ, इष्ट, प्रिय, कान्त दृष्टिजन का संयोग करवानेवाला हो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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