________________
आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१४५०-१४५२
झूठ वचन न बोलने की प्रतिज्ञा ग्रहण करके सत्य वचन न बोलना, पराई चीज बिना दिए हुए न लेने की प्रतिज्ञा ग्रहण करके कोई वैसी चीज दे तो भी लालच मत करना । दुर्धर ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करके परिग्रह का त्याग करके, रात्रि भोजन की विरति अपनाकर विधिवत् पाँच इन्द्रिय का निग्रह करके दूसरे-लेकिन क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष के विषय में आलोयणा देकर, ममत्वभाव अहंकार आदि का त्याग करना। सूत्र - १४५३-१४५५
हे गौतम ! इस बिजली लत्ता की चंचलता समान जीवतर में शुद्ध भाव से तप, संयम, स्वाध्याय-ध्यान आदि अनुष्ठान में उद्यम करना युक्त है । हे गौतम ! ज्यादा क्या कहे ? आलोचना देकर फिर पृथ्वीकाय की विराधना की जाए फिर कहाँ जाकर उसकी शुद्धि करूँ? हे गौतम ! ज्यादा क्या कहे कि यहाँ आलोचना-प्रायश्चित्त करके उस जन्म में सचित्त या रात को पानी का पान करे और अपकाय के जीव की विराधना करे तो वो कहाँ जाकर विशुद्धि पाएंगे? सूत्र-१४५६-१४५९
हे गौतम ! ज्यादा कथन क्या करूँ कि आलोयण लेकर फिर तापणा की ज्वाला के पास तपने के लिए जाए और उसका स्पर्श करे या हो जाए तो फिर उसकी शुद्धि कहाँ होगी? उस अनुसार वायुकाय के विषय में उस जीव की विराधना करनेवाले कहाँ जाकर शुद्ध होंगे? जो हरी वनस्पति पुष्प-फूल आदि का स्पर्श करेगा वो कहाँ शुद्ध होगा? उसी तरह बीजकाय को जो चांपेगा वो कहाँ शुद्ध होगा? सूत्र-१४६०-१४६२
दो, तीन, चार इन्द्रियवाले, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव को परिताप देकर वो जीव कहाँ शुद्धि पाएगा? अच्छी तरह से जो छ काय के जीव की रक्षा नहीं करेगा वो कहाँ जाकर शुद्धि पा सकेगा? हे गौतम ! अब ज्यादा क्या कहे ? यहाँ आलोयणा देकर जो भिक्षु त्रस और स्थावर जीव की रक्षा नहीं करेगा तो कहाँ जाकर शुद्धि करेगा? सूत्र-१४६३-१४७० __आलोचना, निन्दना, गर्हणा करके प्रायश्चित्त करने के लायक निःशल्य बने उत्तम स्थान में रहे पृथ्वीकाय के आरम्भ का परिहार करे, अग्नि का स्पर्श न करे, आलोचनादि प्रायश्चित्त करके निःशल्य होकर संवेगवाला होकर
म स्थान में रहा भिक्षु शरण रहित जीव को दर्द न दिलाए, आलोचनादिक करके संवेग पाए हुए भिक्षु छेदित तिनके को या वनस्पति को बार-बार या सहज भी स्पर्श न करे ।
लगे हुए दोष की आलोचना निन्दना गर्हणा प्रायश्चित्त करके शल्यरहित होकर संवेग पाकर भिक्षु उत्तम संयम स्थान में रहा हो वो जीवन के अन्त तक दो, तीन, चार या पाँच इन्द्रियवाले जीव को संघटन परिताप की किलामणा उपद्रव आदि अशाता न पेदा करे । आलोचनादि करने के पूर्वक संवेगित गृहस्थ ने लोच के लिए ऊपर फेंककर दी हुई भस्म भी ग्रहण नहीं करता। सूत्र - १४७१-१४७४
संवेगित शल्यरहित जो आत्मा स्त्री के साथ बातचीत करे तो हे गौतम ! वो कहाँ शुद्धि पाएगा ? आलोचनादिक करके संवेगित भिक्षु चौदह के अलावा उपकरण का परिग्रह न करे | वो संयम के साधनभूत उपकरण पर दृढ़ता से, निर्ममत्व, अमूर्छा, अगृद्धि रखे । हे गौतम ! यदि वो पदार्थ पर ममत्व करेगा तो उसकी शुद्धि नहीं होगी । ओर क्या कहे ? इस विषय में आलोचना करके जो रात में पानी का पान किया जाए तो वो कहाँ जाकर शुद्ध करेगा?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
Page 133