Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 131
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक गुरु के पास आलोचना करके निन्दना करके, गर्हणा करके, प्रायश्चित्त का सेवन करके, धीर-वीर-पराक्रमवाला घोर तप करके संसार के दुःख देनेवाले पापकर्म को जलाकर भस्म कर दूँ। सूत्र - १४१४-१४१५ काफी कष्टकारी दुष्कर दुःख से करके सेवन किया जाए वैसा उग्र, ज्यादा उग्र, जिनेश्वर के बताए सकल कल्याण के कारणरूप उस तरह के तप को आदर से सेवन करूँगा कि जिससे खड़े-खड़े भी शरीर सूख जाए। सूत्र - १४१६-१४१८ मन-वचन और काया दंड़ का निग्रह करके सज्जड़ आरम्भ और आश्रव के द्वार को रोककर अहंकार, ा, क्रोध का त्याग करके राग, द्वेष, मोह रहित, संग रहित, परिग्रह रहित, ममत्वभाव रहित, निरहंकारी शरीर पर भी निःस्पृहतावाला होकर मैं पाँच महाव्रत का पालन करूँगा । और यकीनन उसमें अतिचार न लगने दूंगा। सूत्र - १४१९-१४२२ अहाहा, मुझे धिक्कार है । वाकई मैं अधन्य हूँ | मैं पापी और पाप मतिवाला हूँ | पापकर्म करनेवाला पापिष्ठ हूँ | मैं अधमाधम महापापी हूँ । मैं कुशील, भ्रष्ट चारित्रवाला, भिल्ल और कसाई की उपमा देने के लायक हूँ। मैं चंडाल, कृपारहित पापी, क्रूर कर्म करनेवाला, निन्द्य हूँ । इस तरह का दुर्लभ चरित्र प्राप्त करके ज्ञान, दर्शन चारित्र की विराधना करके फिर उसकी आलोचना, निन्दना, गर्हणा और प्रायश्चित्त न करूँ और सत्व रहित आराधना से शायद मैं मर जाऊं तो यकीनन अनुत्तर महाभयानक संसार सागर में ऐसी गहराई में डूब जाऊंगा कि फिर करोड़ भव के बाद भी बाहर न नीकल सकूँगा। सूत्र-१४२३-१४२५ तो जब तक बुढ़ापे से पीड़ा न पाऊं और फिर मुझे कोइ व्याधि न हो, जब तक इन्द्रिय सलामत है । तब तक मैं धर्म का सेवन कर लूँ । पहले के लिए गए पापकर्म की निन्दा, गर्दा लम्बे अरसे तक करके उसे जलाकर राख कर दूँ । प्रायश्चित्त का सेवन करके मैं कलंक रहित बनूँगा । हे गौतम ! निष्कलुष निष्कलंक ऐसे शुद्ध भाव वो नष्ट न हो उनसे पहले कैसा भी दुष्कर प्रायश्चित्त मैं ग्रहण करूँगा। सूत्र - १४२६-१४२९ इस प्रकार आलोचना प्रकट करके प्रायश्चित्त का सेवन करके क्लेश और कर्ममल से सर्वथा मुक्त होकर शायद वो पल या उस भव में मुक्ति न पाए तो नित्य उद्योतवाला स्वयं प्रकाशित देवदुंदुभि के मधुर शब्दवाले सैंकड़ो अप्सरा से युक्त ऐसे वैमानिक उत्तम देवलोक में जाते हैं । वहाँ से च्यवकर फिर से यहाँ आकर उत्तम कुल में उत्पन्न होकर कामभोग में ऊंबकर वैराग पाकर तपस्या करके फिर पंडितमरण पाकर अनुत्तर विमान में निवास करके यहाँ आए हए वो समग्र तीन लोक के बंधु समान धर्मतीर्थंकर होते हैं। सूत्र-१४३० हे गौतम ! सुप्रशस्त ऐसे इस चौथे पद का नाम अक्षय सुख स्वरूप मोक्ष को देनेवाले भाव आलोचना है। इस अनुसार मैं कहता हूँ। सूत्र-१४३१-१४३२ हे भगवंत ! इस तरह का उत्तम, श्रेष्ठ, विशुद्ध पद पाकर जो किसी प्रमाद की वजह से बार-बार कोइ विषय में गलती करे, चूके या स्खलना पाए तो उसके लिए काफी विशुद्धि युक्त शुद्धि पद बताया है कि नहीं? इस शंका का समाधान दो। सूत्र-१४३३-१४३५ हे गौतम ! लम्बे अरसे तक पाप की निन्दा और गर्दा करके प्रायश्चित्त का सेवन करके जो फिर अपने महाव्रत आदि की रक्षा न करे तो जैसे धोए हए वस्त्र को सावधानी से रक्षण न करे तो उसमें दाग लगने के बराबर मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 131

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