Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

Previous | Next

Page 129
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-१३९७-१३९९ दुःस्वप्न, दुर्निमित्त, ग्रहपीड़ा, उपसर्ग, शत्रु या अनिष्ट के भय में, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बीजली, उल्कापात, बूरा पवन, अग्नि, महाजन का विरोध आदि जो कुछ भी इस लोक में होनेवाले भय हो वो सब इस विद्या के प्रभाव से नष्ट होते हैं । मंगल करनेवाला, पाप हरण करनेवाला, दूसरे सभी अक्षय सुख देनेवाला ऐसा प्रायश्चित्त करने की ईच्छावाले शायद उस भव में सिद्धि न पाए तो भी वैमानिक उत्तम देवगति पाकर फिर सुकुल में पैदा होकर अचानक सम्यक्त्व पाकर सुख परम्परा महसूस करते हए आँठ कर्म की बाँधी रज और मल से हमेशा के लिए मुक्त होते हैं और सिद्धि पाता है। सूत्र - १४०० ___ हे भगवंत ! केवल इतना ही प्रायश्चित्त विधान है कि जिससे इसके अनुसार आदेश किया जाता है ? हे गौतम ! यह तो सामान्य से बारह महिने की हरएक रात-दिन के हरएक समय के प्राण को नष्ट करना तब से लेकर बालवृद्ध नवदीक्षित गणनायक रत्नाधिक आदि सहित मुनिगण और अप्रतिपादित ऐसे महा अवधि, मनःपर्यवज्ञानी, छद्मस्थ वीतराग ऐसे भिक्षुक को एकान्त अभ्युत्थान योग आवश्यक क्रिया के सम्बन्ध से इस सामान्य प्रायश्चित्त का उपदेश दिया गया है । लेकिन केवल इतना ही प्रायश्चित्त है ऐसा मत समझना । हे भगवंत ! क्या अप्रतिपाती महा अवधि मनःपर्यवज्ञान की छद्मस्थ वीतराग उन्हें समग्र आवश्यक का अनुष्ठान करने चाहिए? हे गौतम ! जरुर उन्हें करने चाहिए । केवल अकेले आवश्यक ही नहीं लेकिन एक साथ हमेशा सतत आवश्यकादि अनुष्ठान करने चाहिए। हे भगवंत ! किस तरह ? हे गौतम ! अचिन्त्य, बल, वीर्य, बुद्धि, ज्ञानातिशय और शक्ति के सामर्थ्य से करने चाहिए । हे भगवंत ! किस वजह से करने चाहिए ? हे गौतम ! भले ही उत्सूत्र उन्मार्ग का मुझसे प्रवर्तन न हो या हुआ हो तो, वैसा करके आवश्यक करना चाहिए। सूत्र - १४०१ हे भगवंत ! विशेष तरह का प्रायश्चित्त क्यों नहीं बताते ? हे गौतम ! वर्षाकाले मार्ग में गमन, वसति का परिभोग करने के विषयक गच्छाचार की मर्यादा का उल्लंघन के विषयक, संघ आचार का अतिक्रमण, गुप्ति का भेद हआ हो, सात तरह की मांडली के धर्म का अतिक्रमण हआ हो, अगीतार्थ के गच्छ में जाने से होनेवाले कुशील के साथ वंदन आहारादिक का व्यवहार किया हो, अविधि से प्रव्रज्या दी हो या बड़ी दीक्षा देने से लगे प्रायश्चित्तअनुचित-अपात्र को सूत्र अर्थ, तदुभय की प्रज्ञापना करने से लगे अतिचार, अज्ञान विषयक एक अक्षर देने से हुए दोष, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, मासिक, चार मासिक, वार्षिक, आलोक सम्बन्धी, परलोक सम्बन्धी, निदान किया गया हो, मूलगुण की विराधना, उत्तरगुण की विराधना, जान-बुझकर या अनजाने में किया गया, बार-बार निर्दयता से दोष सेवन करे, प्रमाद अभिमान से दोष सेवन करे, आज्ञापूर्वक के अपवाद से दोष सेवन किए हो, महाव्रत, श्रमणधर्म, संयम, तप, नियम, आपत्तिकाल में रौद्र-आर्तध्यान होना, राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व विषयक, दुष्ट-क्रूर, परिणाम होने की वजह से पैदा हुआ ममत्व, मूर्छा, परिग्रह आरम्भ से होनेवाला पाप, समिति का अपालन, पराये की गैरमोजुदगी में उसकी नींदा करना, अमैत्रीभाव, संताप, उद्वेग, मानसिक अशान्ति से पैदा होनेवाला, मृषावाद बोलने से, दिए बिना चीज ग्रहण करने से उद्भवित, मैथुन, सेवन विषयक त्रिकरण योग पैकी खंडित पाप विषयक, परिग्रह करने से उद्भावित, रात्रिभोजन विषयक, मानसिक, वाचिक, कायिक, असंयम करण, करावण और अनुमति करने से उद्भवित यावत् ज्ञानदर्शन, चारित्र के अतिचार से उद्भवित, पापकर्म का प्रायश्चित्त, ज्यादा क्या कहे ? जितने त्रिकाल चैत्यवंदना आदिक प्रायश्चित्त के स्थान प्ररूपेल है, उतने विशेष से हे गौतम ! असंख्येय प्रमाण प्रज्ञापना की जाती है । इसलिए उसके अनुसार अच्छी तरह से धारणा करना कि हे गौतम ! प्रायश्चित्तसूत्र की संख्याता प्रमाण नियुक्ति, संग्रहणी, अनुयोग, द्वार, अक्षर, अनन्तापर्याय बताए हैं, उपदेशेल हैं, कहे हैं, समझाए हैं, प्ररूपेल हैं, काल अभिग्रह रूप से यावत् आनुपूर्वी से या अनानुपूर्वी से यानि मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 129

Loading...

Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151