________________
आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक क्रमिक या क्रमरहित यथायोग्य गुणठाणा के लिए प्रायश्चित्त हैं । सूत्र-१४०२
हे भगवंत ! आपने बताए वैसे प्रायश्चित्त की बहुलता है । इस प्रकार प्रायश्चित्त का संघट्ट सम्बन्ध होता है, हे भगवंत ! इस तरह के प्रायश्चित्त को ग्रहण करनेवाला कोई हो कि जो आलोचना करके निन्दन करके गर्दा करके यावत् यथायोग्य तपोकर्म करके प्रायश्चित्त का सेवन करके श्रामण्य को आराधे, प्रवचन की आराधना करे यावत् आत्महित के लिए उसे अंगीकार करके अपने कार्य की आराधना करे, स्वकार्य साधना करे ? हे गौतम ! चार तरह की आलोयणा समझना । नाम आलोचना, स्थापना आलोचना, द्रव्य आलोचना और भाव आलोचना । यह चार पद कईं तरह से और चार तरह से बताए जाते हैं, उसमें संक्षेप से नाम आलोचना केवल नाम से समझना । स्थापना आलोचना किताब आदि में लिखी हो, द्रव्य आलोचना में सरलता से आलोचना करके जिस प्रकार प्रायश्चित्त बताया हो, उसके अनुसार न करे । यह तीनों पद हे गौतम ! अप्रशस्त हैं । हे गौतम ! जो यह चौथा भाव आलोचना नाम का पद है वो लगे हुए दोष की आलोचना करके गुरु के पास यथार्थ निवेदन करके, निन्दा करके, गर्दा करके, प्रायश्चित्त सेवन करके, यावत् आत्महित के लिए उसे अंगीकार करके अपने आत्मा की अन्तिम साधना के लिए उत्तम अर्थ की आराधना करे, उसे भाव आलोचना कहते हैं । हे भगवंत ! भाव आलोचना क्या है ?
हे गौतम ! जो भिक्षु इस तरह का संवेग वैराग पाया हुआ हो, शील, तप, दान, भावनारूप चार स्कंधयुक्त उत्तम श्रमणधर्म की आराधना में एकान्त रसिक हो, मद, भय, गारव, इत्यादिक दोष से सर्वथा विप्रमुक्त हो, सर्व भाव और भावान्तर से शल्यरहित होकर सर्व पाप की आलोचना करके, विशुद्धि पद पाकर 'तहत्ति' कहने के पूर्वक आलोचना प्रायश्चित्त को अच्छी तरह से सेवन करके संयम क्रिया सम्यक् तरह से पालन करे वो इस प्रकार | सूत्र - १४०३
जो हितार्थी आत्मा है वो अल्प पाप भी नहीं बाँधते । उनकी शुद्धि तीर्थंकर भगवंत के वचन से होती है। सूत्र - १४०४-१४०७
हम जैसों की शुद्धि कैसे होगी? घोर संसार के दुःख देनेवाले वैसे पापकर्म का त्याग करके मन, वचन, काया की क्रिया से शील के बोझ मैं धारण करूँगा । जिस तरह सारे भगवंत, केवली, तीर्थंकर, चारित्रयुक्त आचार्य, उपाध्याय और साधु और फिर जिस तरह से पाँच लोकपाल, जो जीव धर्म के परीचित हैं, उनके समक्ष मैं तल जितना भी पाप नहीं छिपाऊंगा । उसी तरह मेरे सारे दोष की आलोचना करूँगा । उसमें जो कुछ भी पर्वत जितना भारी लेकिन प्रायश्चित्त प्राप्त हो सके तो भी मैं उसका सेवन करूँगा कि जिस तरह तत्काल पाप पीगल जाए और मेरी शुद्धि हो सके। सूत्र-१४०८-१४११
प्रायश्चित्त किए बिना आत्मा भवान्तर में मरकर नरक, तिर्यंच गति में कहीं कुम्भीपाक में, कहीं करवत से दोनों ओर कटता है। कहीं शूली से बींधाता है। कहीं पाँव में रस्सी बाँधकर जमीं पर काँटे-कंकर में घसिट जाता है। कहीं खड़ा जाता है। कहीं शरीर का छेदन-भेदन किया जाता है। और फिर रस्सी-साँकल-बेडी से जकडा जाता है । कहीं निर्जल जंगल का उल्लंघन करना पड़ता है । कहीं बैल, घोड़े, गधे आदि के भव में दमन सहना पड़ता है । कहीं लाल तपे लोहे के डाम सहने पड़ते हैं । कहीं ऊंट-बैल के भव में नाक बींधकर नाथना पड़ता है। कहीं भारी बोझ उठाना पड़ता है । कहीं ताकत से ज्यादा बोझ उठाना पड़ता है । कहीं धारवाली आर से वींधाना पड़ता है । ओर फिर छाती, पीठ, हड्डियाँ, कमर का हिस्सा तूट जाता है । परवशता से प्यास, भूख सहने पड़ते हैं। संताप, उद्वेग, दारिद्र आदि दुःख यहाँ फिर से सहने पडेंगे। सूत्र-१४१२-१४१३ ___ तो उसके बदले यही मेरा समग्र दुश्चरित्र का जिस प्रकार मैंने सेवन किया हो उसके अनुसार प्रकट करके
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
Page 130