Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 67
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक वैसे वचन बोले, निह्नवों के मंदिर-मकान में प्रवेश करे, जो निह्नवों के ग्रंथ, शास्त्र, पद या अक्षर को प्ररूपे, जो निह्नवों के प्ररूपित कायक्लेश आदि तप करे, संयम करे । उस के ज्ञान का अभ्यास करे, विशेष तरह से पहचाने, श्रवण करे, पांडित्य करे, उसकी तरफदारी करके, विद्वान की पर्षदा में उस की या उस के शास्त्र की प्रशंसा करे वो भी सुमति की तरह परमाधार्मिक असुर में उत्पन्न होता है। सूत्र - ६८१ हे भगवंत ! उस सुमति के जीव ने उस समय श्रमणपन अंगीकार किया तो भी इस तरह के नारक तिर्यंच मानव असुरादिवाली गति में अलग-अलग भव में इतने काल तक संसार भ्रमण क्यों करना पड़ा ? हे गौतम ! जो आगम को बाधा पहुँचे उस तरह के लिंग वेश आदि ग्रहण किए जाए तो वो केवल दिखावा ही है और काफी लम्बे संसार का कारण समान वो माने जाते हैं । उसकी कितनी लम्बी हद है, वो बता नहीं सकते, उसी कारण से (आगम –अनुसार) संयम दुष्कर माना गया है। तो दूसरी बात यह ध्यान में रखे कि श्रमणपन के लिए संयम स्थान में कुशील संसर्गी का त्याग करना है। यदि उसका त्याग न करे तो संयम ही टिकता नहीं । तो सुन्दर मतिवाले साधु को वही आचरण करना, उसकी ही प्रशंसा करना, उसकी ही प्रभावना-उन्नति करना, उसकी ही सलाह देना, वो ही आचरण करना कि जो भगवंत ने बताए आगम-शास्त्र में हो, इस प्रकार सूत्र का अतिक्रमण करके जिस तरह सुमति लम्बे संसार में भटका उसी तरह दूसरे भी सुन्दर, विदुर, सुदर्शन, शेखर, निलभद्र, सभोमेय, खग्गधारी, स्तेनश्रमण, दुर्दान्तदेव, रक्षित मुनि आदि हो चूके उसकी कितनी गिनती बताए? इसलिए इस विषय का परमार्थ जानकर कुशील संसर्ग सर्वथा वर्जन करे। सूत्र-६८२ हे भगवंत ! क्या वो पाँच साधु को कुशील रूप में नागिल श्रावक ने बताया वो अपनी स्वेच्छा से या आगम शास्त्र के उपाय से ? हे गौतम ! बेचारे श्रावक को वैसा कहने का कौन-सा सामर्थ्य होगा ? जो किसी अपनी स्वच्छन्द मति से महानुभाव सुसाधु के अवर्णवाद बोले वो श्रावक जब हरिवंश के कुलतिलक मरकत रत्न समान श्याम कान्तिवाले बाईसवें धर्म तीर्थंकर अरिष्टनेमि नाम के थे। उनके पास वंदन के निमित्त से गए थे । वो हकीकत आचारांग सूत्र में अनन्तगमपर्यव के जानकार केवली भगवंत ने प्ररूपी थी। उसे यथार्थ रूप से हृदय में अवधारण किया था । वहाँ छत्तीस आचार की प्रज्ञापना की थी। उन आचार में से जो किसी साधु या साध्वी किसी भी आचार का उल्लंघन करे वो गृहस्थ के साथ तुलना करने के उचित माना जाता है । यदि आगम के खिलाफ व्यवहार करे, आचरण करे या प्ररूपे तो वो अनन्त अंसारी होता है। इसलिए हे गौतम ! जिसने एकमुखवस्त्रिका का अधिक परिग्रह किया तो उसके पाँचवें महाव्रत का भंग हुआ। जिसने स्त्री के अंगोपांग देखे, चिंतवन किया फिर उसने आलोचना की नहीं तो उसने ब्रह्मचर्य की गुप्ति की विराधना की उस विराधना से जैसे एक हिस्से में जले हुए वस्त्र को जला हुआ वस्त्र कहते हैं उसी तरह यहाँ चौथे महाव्रत का भंग कहते हैं, जिसने अपने हाथों से भस्म उठा ली, बिना दिए ग्रहण किया उसके तीसरे महाव्रत का भंग हुआ । जिसने सूर्योदय होने से पहले सूर्योदय हुआ ऐसा कहा उसके दूसरे महाव्रत का भंग हुआ । जिस साधु ने सजीव जल से आँख साफ की और अविधि से मार्ग की भूमि में से दूसरी भूमि में संक्रमण किया । बीजकाय को चांपे वस्त्र की किनार से वनस्पतिकाय का संघट्टा हुआ । बीजली का स्पर्श हुआ । अजयणा से फड़फड़ आवाज करने से मुहपति से वायुकाय की विराधना की । उन सबके पहले महाव्रत का भंग हुआ । उनके भंग से पाँच महाव्रतों का भंग हुआ । इसलिए हे गौतम ! आगम युक्ति से इन साधुओं को कुशील कहा है। क्योंकि उत्तरगुण का भंग भी इष्ट नहीं है तो फिर मूलगुण का भंग तो सर्वथा अनिष्ट होता है। हे भगवंत ! तो क्या इस दृष्टांत को सोचकर ही महाव्रत ग्रहण करें ? हे गौतम ! यह बात यथार्थ है, हे मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 67

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