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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक पूर्ण करके जानकर इरियावही पडिक्कमके प्रतिक्रमण के वक्त तक स्वाध्याय न करे तो दुवालस, सोने के बाद दुःस्वप्न या कुःस्वप्न आ जाए तो सौ साँस प्रमाण काऊसग्ग करना । रात में छींक या खाँसी खाए, खटिया, बिस्तर या दंड़ खिसके या आवाज करे तो खमण । दिन या रात को हँसी, क्रीड़ा, कंदर्प, नाथवाद करे तो उपस्थापन ।
उस तरह से जो भिक्षु सूत्र का अतिक्रमण करके आवश्यक करे तो हे गौतम ! कारणवाले को मिच्छामि दुक्कडम् प्रायश्चित्त देना । जो अकारणिक हो उसे तो यथायोग्य चऊत्थ आदि प्रायश्चित्त कहना, जो भिक्षु शब्द करे, करवाए, गहरे या अगाढ़ शब्द से आवाज लगाए वो हरएक स्थानक में हरएक का हरएक पद में यथायोग्य रिश्ता जुड़कर प्रायश्चित्त देना।
उस अनुसार जो भिक्षु अपकाय, अग्निकाय या स्त्री के शरीर के अवयव का संघटो करे लेकिन भुगते नहीं तो उसे २५ आयंबिल देना, और जो स्त्री को भुगते उस दुरन्त प्रान्त लक्षणवाले का मुँह भी मत देखना । ऐसे उस महापाप कर्म कर्ता को पारंचित प्रायश्चित्त ।
अब यदि वो महातपस्वी हो ७० मासक्षपण, १०० अधर्ममासक्षपण, १०० दुवालस, १०० चार उपवास, १०० अठुम, १०० छठ्ठ, १०० उपवास, १०० आयंबिल, १०० एकाशन, १०० शुद्ध आचाम्ल, एकाशन (जिसमें लूण मरि या कुछ भी मिश्र न किया हो), १०० निर्विकृतिक, यावत् उलट सुलट क्रम से प्रायश्चित्त बताना । यह दिया गया प्रायश्चित्त जो भिक्षु विसामा रहित पार लगाए उसे नजदीकी समय में आगे आनेवाला समझना। सूत्र-१३८५
हे भगवंत ! उलट-सुलट कर्म से इस अनुसार सो-सो गिनती प्रमाण हरएक तरह के तप के प्रायश्चित्त करे तो कितने समय तक करते रहे ? हे गौतम ! जब तक उस आचार मार्ग में स्थापित हो तब तक करते रहे, हे भगवंत! उसके बाद क्या करे? हे गौतम ! उसके बाद कोई तप करे, कोई तप न करे, जो आगे बताने के अनुसार तप करते रहते है वो वंदनीय हैं, पूजनीय हैं, दर्शनीय हैं, वो अतिप्रशस्त सुमंगल स्वरूप हैं, वो सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक हैं। तीनों लोक में वंदनीय हैं । जो बताए हुए तप का प्रायश्चित्त नहीं करता वो पापी है। महापापी है। पापी का भी बड़ा पापी है । दुरन्त प्रान्त अधम लक्षणवाला है । यावत् मुँह देखने के लायक नहीं है। सूत्र - १३८६-१३८७
हे गौतम ! जब यह प्रायश्चित्त सूत्र विच्छेद होगा तब चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारों का तेज सात रातदिन तक स्फुरायमान नहीं होगा । इसका विच्छेद होगा तब सारे संयम की कमी होगी क्योंकि यह प्रायश्चित्त सर्व पाप का प्रकर्षरूप से नाश करनेवाला है, सर्व तप, संयम के अनुष्ठान का प्रधान अंग हो तो परम विशुद्धि स्वरूप प्रवचन के भी नवनीत और सारभूत स्थान बताया हो तो यह सभी प्रायश्चित्त पद हैं। सूत्र-१३८८
हे गौतम ! जितने यह सभी प्रायश्चित्त हैं उसे इकट्ठा करके गिनती की जाए तो उतना प्रायश्चित्त एक गच्छाधिपति को गच्छ के नायक को और साध्वी समुदाय की नायक प्रवर्तिनी को चार गुना प्रायश्चित्त बताना, क्योंकि उनको तो यह सब पता चला है । और जो यह परिचित और यह गच्छनायक प्रमाद करनेवाले हो तो दूसरे, बल, वीर्य होने के बावजूद ज्यादातर आगम में उद्यम करनेवाला हो तो भी वैसी धर्मश्रद्धा से न करे, लेकिन मंद उत्साह से उद्यम करनेवाला बने । भग्न परीणामवाले का किया गया कायक्लेश निरर्थक है । जिस वजह के लिए इस प्रकार है उसके लिए अचिन्त्य अनन्य निरनुबन्धवाले पुण्य के समुदायवाले तीर्थंकर भगवंत वैसी पुण्याइ भुगतते होने के बावजूद साधु को उस प्रकार करना उचित नहीं है । गच्छाधिपति आदि को सर्व तरह से दोष में प्रवृत्ति न करना । इस वजह से ऐसा कहा जाता है कि गच्छाधिपति आदि समुदाय के नायक को यह सभी प्रायश्चित्त जितना इकट्ठा करके मिलाया जाए तो उससे चार गुना बताना ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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