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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक भिक्षु को अपकाय और अग्निकाय के संघट्टण आदि एकान्त में निषेध किया है । जिस किसी को ज्योति या आकाश में से गिरनेवाली बारिस की बूंद से उपयोग सहित या रहित अचानक स्पर्श हो जाए तो उसके लिए आयंबिल कहा है । स्त्री के अंग के अवयव को सहज भी हाथ से, पाँव से, दंड़ से, हाथ में पकड़े तिनके के अग्र हिस्से या खंभे से संघट्टा करे तो पारंचित प्रायश्चित्त । बाकी फिर अपने स्थान से विस्तार से बताए जाएंगे। सूत्र-१३८३-१३८४
___ ऐसे करते हुए भिक्षा का समय आ पहुँचा । हे गौतम ! इस अवसर पर पिंड़ेसणा-शास्त्र में बताए विधि से दीनता रहित मनवाला भिक्षु बीज और वनस्पतिकाय, पानी, कीचड़, पृथ्वीकाय को वर्जते, राजा और गृहस्थ की
ओर से होनेवाले विषम उपद्रव-कदाग्रही को छोड़नेवाला, शंकास्थान का त्याग करनेवाला, पाँच समिति, तीन गुप्ति में उपयोगवाला, गोचरचर्या में प्राभृतिक नाम के दोषवाली भिक्षा का वर्जन न करे तो उसको चोथभक्त प्रायश्चित्त । यदि वो उपवासी न हो तो स्थापना कुल में प्रवेश करे तो उपवास, जल्दबाझी में प्रतिकूल चीज ग्रहण करने के बाद तुरन्त ही निरुपद्रव स्थान में न परठवे तो उपवास, अकल्प्य चीज भिक्षा में ग्रहण करने के बाद यथा-योग्य उपवास आदि, कल्प्य चीज का प्रतिबंध करे तो उपस्थापन, गोचरी लेने के लिए नीकला भिक्षु बाते-विकथा की प्रस्तावना करे, उदीरणा करे, कहने लगे, सुने तो छठु प्रायश्चित्त, गोचरी करके वापस आने के बाद लाए गए आहार, पानी, औषध जिसने दिए हों, जिस तरह ग्रहण किया हो, उसके अनुसार और उस क्रम से न आलोवे तो पुरिमडू, इरिय० प्रतिक्रमे बिना चावल-पानी न आलोवे, तो पुरिमड्ड, रजयुक्त पाँव का प्रमार्जन किए बिना इरिया प्रतिक्रमे तो पुरिमडू, इरिया० पडिक्कमने की ईच्छावाले पाँव के नीचे की भूमि के हिस्से की तीन बार प्रमार्जन न करे तो नीवी, कान तक और होठ पर मुहपत्ति रखे बिना इरिया प्रतिक्रमे तो मिच्छामि दुक्कडम् और पुरिमड्ड।
सज्झाय परठवते - गोचरी आलोवते धम्मो मंगलम् की गाथा का परावर्तन किए बिना चैत्य और साधु को वन्दे बिना पच्चक्खाण पूरे करे तो पुरिमड्ड, पच्चक्खाण पूरे किए बिना भोजन, पानी या औषध का परिभोग करे तो चोथभक्त, गुरु के सन्मुख पच्चक्खाण न पारे तो, उपयोग न करे, प्राभृतिक न आलोवे, सज्झाय न परठवे, इस हर एक प्रस्थापन में, गुरु भी शिष्य की और उपयोगवाले न बने तो उनको पारंचित प्रायश्चित्त, साधर्मिक, साधु को गोचरी में से आहारादिक दिए बिना भक्ति किए बिना कुछ आहारादिक परिभोग करे तो छठ्ठ, भोजन करते, परोंसते यदि नीचे गिर जाए तो छठ्ठ, कटु, तीखे, कषायेल, खट्टे, मधुर, खारे रस का आस्वाद करे, बार-बार आस्वाद करके वैसे स्वादवाले भोजन करे तो चोथ भक्त, वैसे स्वादिष्ट रस में राग पाए तो खमण या अठुम, काऊस्सग्ग किए विगइ का इस्तमाल करे तो पाँच आयंबिल, दो विगइ से ज्यादा विगइ का इस्तमाल करे तो पाँच निर्विकृतिक, निष्कारण विगइ का इस्तमाल करे तो अठुम, ग्लान के लिए अशन, पान, पथ्य, अनुपान ही आए हो और बिना दिया गया इस्तमाल करे तो पारंचित ।
ग्लान की सेवा-मावजत किए बिना भोजन करे तो उपस्थापन, अपने-अपने सारे कर्तव्य का त्याग करके ग्लान के कार्य का आलम्बन लेकर अपने कर्तव्य में प्रमाद का सेवन करे तो वो अवंदनीय, ग्लान के उचित जो करने लायक कार्य न कर दे तो अठूम, ग्लान, बुलाए और एक शब्द बोलने के साथ तुरन्त जाकर जो आज्ञा दे उसका अमल न करे तो पारंचित, लेकिन यदि वो ग्लान साधु स्वस्थ चित्तवाला हो तो । यदि सनेपात आदि कारण से भ्रमित मानसवाले हो तो उस ग्लान से कहा हो वैसा न करना हो । उसके उचित हितकारी जो होता हो वो ही करना, ग्लान के कार्य न करे उसे संघ के बाहर नीकालना ।
___ आधाकर्म, औदेशिक, पूर्तिकर्म, मिश्रजात, स्थापना, प्राभृतिका, प्रादुष्करण, क्रीत, प्रामित्यक, अभ्याहृत, उभिन्न, मालोपहृत, आछेद्य, अनिसृष्ट, अध्यवपुरक, धात्री, दुत्ति, निमित्त, आजीवक, वनीपक, चिकित्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, पूर्वपश्चात् संस्तव, विद्या, मंत्र, चूर्ण, योग, मूल कर्मशक्ति, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उद्भिन्न, अपरिणत, लिप्त, छर्दित, इन बियालीश आहार के दोष में से किसी भी दोष से दुषित आहारपानी औषध का परिभोग करे तो यथायोग्य क्रमिक उपवास, आयंबिल का प्रायश्चित्त देना।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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