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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक नौ तरह की ब्रह्मचर्य की गुप्ति, दश तरह का श्रमण धर्म आदि और दूसरे काफी आलापक आदि में बताए गए का खंडन विराधन हुआ हो और उस निमित्त से आगम के कुशल ऐसे गीतार्थ गुरु के बताए हुए प्रायश्चित्त यथाशक्ति अपना बल वीर्य पुरुषार्थ पराक्रम छिपाए बिना अशठरूप से दीनता रहित मानस से अनशन आदि बाह्य और अभ्यंतर बारह तरह के तपकर्म को गुरु के पास फिर से अवधारण निश्चित् करके काफी प्रकटरूप से तहत्ति ऐसा कहकर अभिनन्दे गुरु के दिए हुए प्रायश्चित्त तप का एकसाथ या टुकड़े-टुकड़े हिस्से करके सम्यग् तरह से न दो तो वो भिक्षु अवंदनीय बनते हैं।
हे भगवंत ! किस वजह से खंड खंड तप यानि बीच में पारणा करके विसामा लेने के लिए तप प्रायश्चित्त सेवन करे ? हे गौतम ! जो भिक्षु छ महिने, चार महिने, मासक्षमण एक साथ करने के लिए समर्थ न हो वो छठ्ठ, अठुम, चार, पाँच, पंद्रह दिन ऐसे उपवास करके भी वो प्रायश्चित्त चूका दे । दूसरा ओर भी कोई प्रायश्चित्त उसके भीतर समा जाए, इस वजह से खंडा-खंडी बीच में विसामा लेने के लिए शक्ति अनुसार तप-प्रायश्चित्त का सेवन करे। ऐसा करते-करते दिन के मध्याह्न के समय होनेवाले पुरीमडू के वक्त में अल्पसमय बाकी रहा । उस अवसर पर यदि कोई प्रतिक्रमण करते हुए, वंदन करते हुए, स्वाध्याय करते हुए, परिभ्रमण करते, चलते, जाते, खड़े रहते, बैठते, उठते, तेऊकाय का स्पर्श होता हो और भिक्षु उसके अंग न खींचे, संघट्टा न रोके, तो उपवास, दूसरों को भी यथायोग्य प्रायश्चित्त में प्रवेश करवाए या अपनी शक्ति अनुसार तपकर्म का सेवन न करे तो उसे दूसरे दिन चार गुना प्रायश्चित्त बताए, जो वांदते हो या प्रतिक्रमण करते हो उसकी आड़ लेकर साँप या बिल्ली जाए तो उसका लोच करना । या दूसरे स्थान पर चले जाए । उसकी तुलना में उग्रतप में रमणता करना । यह बताए हुए विधान न करे तो गच्छ के बाहर नीकालना।
जो भिक्ष उस महा उपसर्ग को सिद्ध करनेवाला, पैदा करनेवाला, दनिमित्त और अमंगल का धारक या वाहक हो, उसे गच्छ बाहर करने के उचित समझना । जो पहली या दसरी पोरिसी में इधर-उधर भटकता हो, गमन करता हो, अनुचित समय में घूमनेवाला, छिद्र देखनेवाला । यदि वो चार आहार को-चोविहार के पच्चक्खाण न करे तो छठू, दिन में स्थंडिल स्थान की प्रतिलेखना करके रात में जयणा पूर्वक मात या स्थंडिल वोसिरावे तो ग्लाने एकासन, दूसरे को तो छठ्ठ का ही प्रायश्चित्त, यदि स्थंडिल स्थान दिन में जीवजन्तु रहित जाँच न की हो, और भाजन, पूंजना-प्रमार्जन न किया हो, स्थान न देखा हो, मातृ करने का भाजन भी जयणा से न देखा हो और रात को, ठल्ला या मात परठवे तो ग्लान को एकासन, बाकी को दुवालस-पाँच उपवास या ग्लान को मिच्छामि दुक्कडम्
उस प्रकार प्रथम पोरिसी मेंसूत्र का, दूसरी पोरिसी में अर्थ का अध्ययन छोड़कर जो स्त्री कथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, चोरकथा या गृहस्थ की पंचात की कथा करे या दूसरी असंबद्ध कथा करे, आर्त रौद्रध्यान की उदीरणा करवानेवाली कथा करे, वैसी प्रस्तावना उदीरणा करे या करवाए वो एक साल तक अवंदनीय किसी वैसे बड़ी वजह के वश से प्रथम या दूसरी पोरिसी में एक पल या आधा पल कम स्वाध्याय हुआ हो तो ग्लान को मिच्छामि दुक्कडम् । दूसरों को निव्विगइ, अति निष्ठुरता से या ग्लान से यदि किसी भी तरह से कोई भी कारण उत्पन्न होने से बार-बार गीतार्थ गुरु ने मना करने के बावजूद आकस्मिक किसी दिन बैठे-बैठे प्रतिक्रमण किया हो तो एक मास अवंदनीय । चार मास तक उसे मौनव्रत रखना चाहिए । यदि कोई प्रथम पोरिसी पूर्ण होने से पहले
और तीसरी पोरिसी बीत जाने के बाद भोजन पानी ग्रहण करे और उपभोग करे तो उसे पुरीमडू, गुरु के सन्मुख जाकर इस्तमाल न करे तो चऊत्थं, उपयोग किए बिना कुछ भी ग्रहण करे तो चऊत्थं, अविधि से उपयोग करे तो उपवास, आहार के लिए, पानी के लिए, स्वकार्य के लिए, गुरु के कार्य के लिए, बाहर की भूमि से नीकलनेवाले गुरु के चरण में मस्तक का संघट्ट करके 'आवस्सिआए'' पद न कहे, अपने उपाश्रय की वसति के द्वार में प्रवेश करे, निसीह न कहे तो पुरिमड्ड, बाहर जाने की सात वजह के अलावा वसति में से बाहर नीकले तो उसे गच्छ से बाहर कर दो।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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