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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- १३८१
यदि कोई चैत्य को वंदन करता हो, वैसी स्तुति करता हो या पाँच तरह के स्वाध्याय करता हो उसे विघ्न करे या अंतराय करे या करवाए अगर दूसरा अंतराय करता हो तो उसे अच्छा माने अनुमोदना करे तो उसे उस स्थानक में पाँच उपवास, कारणवाले को एकासना और निष्कारणीक को संवत्सर तक वंदन न करना । यावत् 'पारंचियं'' करके उपस्थापना करना। सूत्र - १३८२
जो प्रतिक्रमण न करे उसे उपस्थापना का प्रायश्चित्त देना । बैठे-बैठे प्रतिक्रमण करनेवाले को खमण (उपवास), शून्याशून्यरूप से यानि कि यह सूत्र बोला गया है या नहीं वैसे उपयोगरहित अनुपयोग से प्रमत्तरूप से प्रतिक्रमण किया जाए तो पाँच उपवास, मांडली में प्रतिक्रमण न करे तो उपस्थापना; कुशील के साथ प्रतिक्रमण करे तो उपस्थापना, ब्रह्मचर्यव्रत में परिभ्रष्ट होनेवाले के साथ प्रतिक्रमण करे तो 'पारंचित'' प्रायश्चित्त देना । सर्व श्रमणसंघ को त्रिविध-त्रिविध से न खमे, न खमाए । क्षमा न दे और प्रतिक्रमण करे तो उपस्थापना, प्रायश्चित्त पद से पद स्पष्ट और अलग न बोलते हुए एक दुजे पद में मिश्रित अक्षरवाले प्रतिक्रमण के सूत्र बोले तो चोथ भक्त, प्रतिक्रमण किए बिना संथारा करे, खटियाँ पर सोए, बगल बदले तो उपवास, दिन में सोए तो पाँच उपवास ।
प्रतिक्रमण करके गुरु के चरणकमल में वसति की आज्ञा पाकर उसे दृष्टि से अवलोकन करे, वसति को अवलोकन करके गुरु को निवेदन न करे तो छठ, वसति को संप्रवेदन किए बिना रजोहरण पडिलेहण करे तो पुरीमड्ड, विधिवत् रजोहरण का प्रतिलेखन करके गुरु के पास मुहपत्ति पडिलेहण किए बिना उपधि पडिलेहण का संदिसाऊं का आदेश खुद माँग ले तो पुरीमड्ड, उपधि संदिसाऊं ऐसी आज्ञा लिए बिना उपधि पडिलेहे तो पुरीमड्ढ, उपयोग रहित उपधि या वसति का प्रतिलेखन करे तो पाँच उपवास, अविधि से वसति या दूसरा कुछ भी पात्रक मात्रक उपकरण आदि सहज भी अनुपयोग या प्रमाद से प्रतिलेखन करे तो लगातार पाँच उपवास, वसति, उपधि, पात्र, मात्रक, उपकरण को कोई भी प्रतिलेखन किए बिना या दुष्प्रतिलेखन करके उसका उपभोग करे तो पाँच उपवास, वसति या उपधि या पात्र, मात्रक, उपकरण का प्रतिलेखन ही न करे तो "उपस्थापन'' उसके अनुसार वसति उपधि को प्रतिलेखन ही न करे तो उपस्थापन उस प्रकार वसति उपधि को प्रतिलेखन करने के बाद जिस प्रदेश में संथारा किया हो, जिस प्रदेश में उपधि की प्रतिलेखना की हो उस स्थान को निपुणता से धीरे-धीरे दंड़पुच्छणक या रजोहरण से इकट्ठा करके उसे नजर से न देखे, काजा में जूं या जन्तु को अलग करके एकान्त निर्भय स्थान में न रखे तो पाँच उपवास, लूं या किसी जीव को ग्रहण करके काजा की परठवना कर के इरीयावही न प्रतिक्रमे तो उपवास, स्थान देखे बिना काजा की परठवना करे तो उपस्थापना (भले ही काज में जूं या कोई जीव हो कि न हो लेकिन काजा की प्रत्युपेक्षणा करना जरुरी है।)
यदि षट्पदिका काजा में हो और बोले कि नहीं है तो पाँच उपवास, उस अनुसार वसति उपधि का प्रतिलेखन करके समाधिपूर्वक विक्षुब्ध हुए बिना-परठवना न करे तो चौथ भक्त सूर्योदय होने से पहले समाधिपूर्वक विक्षुब्ध हुए बिना भी परठवना करे तो आयंबिल, हरितकाय, लीलोतरी, वनस्पतिकाय युक्त, बीजकाय युक्त, त्रसकाय दो इन्द्रियादिक जीव से युक्त स्थान में समाधिपूर्वक विक्षुब्ध हुए बिना भी परठवना करे या वैसे स्थान में दूसरा कुछ या उच्चारादिक (मल-मूत्र आदि) चीज परठवे, वोसिरावे तो पुरीमड्ड, एकाशन आयंबिल यथाकर्म प्रायश्चित्त समझना, लेकिन यदि वहाँ किसी जीव के उपद्रव की संभावना न हो तो, यदि मौत के अलावा वेदना रूप उपद्रव की सम्भावना हो तो उपवास । उस स्थंडिल की फिर से भी अच्छी तरह जाँच करके जीव रहित है, ऐसे निःशंक होकर फिर भी उसकी आलोचना करके यथायोग्य प्रायश्चित्त ग्रहण न करे तो उपस्थापन, समाधिपूर्वक परठवना करे तो भी सागारी-गृहस्थ रहता हो या रहनेवाला हो फिर भी परठवे तो उपवास । प्रतिलेखन न किया हो वैसी जगह में जो कुछ भी वासिरावे तो उपस्थापन ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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