________________
आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक लिए प्ररूपे । तीर्थंकर आदि को आश्रित करके अपने-अपने बताए हुए नियमित समय की जगह-जगह रात-दिन हर एक समय जन्म से लेकर जो यकीनन किया जाए, साधना की जाए, उपदेश, प्ररूपणा से हमेशा समजाया जाए, इस कारण से गौतम ! ऐसा कहते हैं कि यह अवश्य करने लायक अनुष्ठान है । उसे आवश्यक कहते हैं।
हे गौतम ! जो भिक्षु उस अनुष्ठान के समय समय का उल्लंघन करते हैं, उसमें ढील करते हैं । अनुपयोग वाला प्रमादी होता है, अविधि करने से दूसरों को अश्रद्धा पैदा करनेवाला होता है, बल और वीर्य होने के बावजूद किसी भी आवश्यक में प्रमाद करनेवाला होता है, शातागारव या इन्द्रिय की लंपटता का कोई आलंबन पकड़कर देर कर के या उतावला होकर बताए गए समय पर अनुष्ठान नहीं करता । वो साधु महा प्रायश्चित्त पाता है। सूत्र - १३७९
हे भगवंत ! प्रायश्चित्त का दूसरा पद क्या है ? हे गौतम ! दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा यावत् संख्यातीत प्रायश्चित्त पद स्थान को यहाँ प्रथम प्रायश्चित्त पद के भीतर अंतर्गत् रहे समझना । हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से आप कहते हो ? हे गौतम ! सर्व आवश्यक के समय का सावधानी से उपयोग रखनेवाले भिक्षु रौद्र-आर्तध्यान, राग, द्वेष, कषाय, गारव, ममत्व आदि कईं प्रमादवाले आलंबन के लिए सर्वभाव और भवान्तर से काफी मुक्त हो, केवल ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपोकर्म, स्वाध्याय, ध्यान, सुन्दर धर्म के कार्य में अत्यन्तरूप से अपना बल, वीर्य, पराक्रम न छिपाते हुए और सम्यग् तरह से उसमें सर्वकरण से तन्मय हो जाता है । जब सुन्दर, धर्म के आवश्यक के लिए रमणतावाला बने, तब आश्रवद्वार को अच्छी तरह से बँध करनेवाला हो, यानि कर्म आने के कारण को रोकनेवाला बने, तब अपने जीव वीर्य से अनादि भव के इकटे किए गए अनिष्ट दुष्ट आठ कर्म के समूह को एकान्त में नष्ट करने के लिए कटिबद्ध लक्षणवाला, कर्मपूर्वक योगनिरोध करके जलाए हए समग्र कर्मवाला, जन्म जरा, मरण स्वरूप चार गतिवाले संसार पाश बँधन से विमुक्त, सर्व दुःख से मुक्त होने से तीन लोक के शिखर स्थान रूप सिद्धशिला पर बिराजे । इस वजह से ऐसा कहा है कि इस प्रथम पद में बाकी प्रायश्चित्त के पद समाविष्ट हैं। सूत्र- १३८०
हे भगवंत ! वो आवश्यक कौन-से हैं ? चैत्यवंदन आदि । हे भगवंत ! किस आवश्यक में बार-बार प्रमाद दोष से समय का, समय का उल्लंघन या अनुपयोगरूप से या प्रमाद से अविधि से अनुष्ठान किया जाए या तो यथोक्त काल से विधि से सम्यग तरह से चैत्यवंदन आदि न करे, तैयार न हो, प्रस्थान न करे, निष्पन्न न हो, वो देर से करे या करे ही नहीं या प्रमाद करे तो वैसा करनेवाले को कितना प्रायश्चित्त कहे?
हे गौतम ! जो भिक्षु या भिक्षुणी यतनावाले भूतकाल के पाप की निंदा, भावि में अतिचार न करनेवाले, वर्तमान में अकरणीय पापकर्म न करनेवाले, वर्तमान में अकरणीय पापकर्म का त्याग करनेवाले सर्वदोष रहित बने पाप-कर्म के पच्चक्खाण युक्त दीक्षा दिन से लेकर रोज जावज्जीव पर्यन्त अभिग्रह को ग्रहण करनेवाले काफी श्रद्धावाले भक्तिपूर्ण दिलवाले या यथोक्त विधि से सूत्र और अर्थ को याद करते हुए दूसरे किसी में मन न लगाते हुए, एकाग्र चित्तवाले उसके ही अर्थ में मन की स्थिरता करनेवाला, शुभ अध्यवसायवाले, स्तवन और स्तुति से कहने के लायक तीनों समय चैत्य को वंदन न करे, तो एक बार के प्रायश्चित्त का उपवास कहना, दूसरी बार उसी कारण के लिए छेद प्रायश्चित्त देना । तीसरी बार उपस्थापना, अविधि से चैत्य को वंदन करे तो दूसरों को अश्रद्धा पैदा होती है । इसलिए बड़ा प्रायश्चित्त कहा है। और फिर
__- जो हरी वनस्पति या बीज, पुष्प, फूल, पूजा के लिए महिमा के लिए शोभायमान के लिए संघट्ट करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे, छेदन करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो इन सभी स्थानक में उपस्थापना, खमण-उपवास चोथ भक्त, आयंबिल, एकासणु, निवि गाढ, अगाढ भेद से क्रमिक समझना।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
Page 119