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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-७-प्रायश्चित्त सूत्र (चूलिका-१) "एगंत निर्जरा सूत्र-१३५७-१३५९
हे भगवंत ! इस दृष्टांत से पहले आपने कहा था कि परिपाटी क्रम अनुसार (वो) प्रायश्चित्त आप मुझे क्यों नहीं कहते ? हे गौतम ! यदि तुम उसका अवलंबन करोगे तो प्रायश्चित्त वाकई तुम्हारी जो प्रकट धर्म सोच है वो और सुंदर सोच माना जाता है । फिर गौतम ने पूछा तब भगवंत ने कहा कि जब तक देह में-आत्मा में संदेह हो तब तक मिथ्यात्व होता है और उसका प्रायश्चित्त नहीं होता। सूत्र - १३६०-१३६१
जो आत्मा मिथ्यात्व से पराभवित हआ हो, तीर्थंकर भगवंत के वचन को विपरीत बोले, उनके वचन का उल्लंघन करे, वैसा करनेवाले की प्रशंसा करे तो वो विपरीत बोलनेवाला घोर गाढ़ अंधकार और अज्ञानपूर्ण पाताल में नरक में प्रवेश करनेवाला होता है । लेकिन जो सुन्दर तरह से ऐसा सोचता है कि-तीर्थंकर भगवंत खुद इस प्रकार कहते हैं वो खुद उस के अनुसार व्यवहार करते हैं। सूत्र - १३६२-१३६३
हे गौतम ! ऐसे जीव भी होते हैं कि जो जैसे तैसे प्रव्रज्या अंगीकार कर के वैसी अविधि से धर्म का सेवन करते हैं कि जिससे संसार से मुक्त न हो सके । उस विधि के श्लोक कौन-से हैं? हे गौतम ! वो विधि श्लोक इस प्रकार जानना। सूत्र-१३६४-१३६५
चैत्यवंदन, प्रतिक्रमण, जीवादिक तत्त्व के सद्भाव की श्रद्धा, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय का दमन, तीन गुप्ति, चार कषाय का निग्रह उन सब में सावध रहना, साधुपन की सामाचारी और क्रिया-कलाप जानकर विश्वस्त होनेवाले, लगे हुए दोष की आलोचना करके शल्यरहित, गर्भावास आदि के दुःख की वजह से, काफी संवेग पानेवाला, जन्म, जरा, मरण आदि के दुःख से भयभीत, चार गतिरूप संसार के कर्म जलाने के लिए हमेशा इस अनुसार हृदय में ध्यान करता है। सूत्र - १३६६-१३६८
जरा, मरण और काम की प्रचुरतावाले रोग क्लेश आदि बहविध तरंगवाले, आँठ कर्म, चार कषायरूप भयानक जलचर से भरे गहरे भवसागर में इस मानवरूप में सम्यक्त्व ज्ञानचारित्ररूप उत्तम नाव जहाज पाकर यदि उसमें से भ्रष्ट हुआ हो तो दुःख का अन्त पाए बिना मैं पार रहित संसार सागर में लम्बे अरसे तक इधर-उधर भटकते पटकते भ्रमण करूँगा । तो वैसा दिन कब आएगा कि जब मैं शत्रु और मित्र को ओर समान पक्षवाला, निःसंग, हमेशा शुभ ध्यान में रहनेवाला होकर विचरण करूँगा । और फिर भव न करना पडे वैसी कोशीश करूँगा। सूत्र - १३६९-१३७१
इस अनुसार बड़े अरसे से चिन्तवे हए मनोरथ के सन्मुख होनेवाला उस रूप महासंपत्ति के हर्ष से उल्लासित होनेवाले, भक्ति के अनुग्रह से निर्भर होकर नमस्कार करके, रोमांच खड़ा होने से रोम-रोम व्याप्त आनन्द अंगवाला, १८ हजार शिलांग धारण करने के लिए उत्साहपूर्वक ऊंचे किए गए खंभेवाला, छत्तीस तरह के आचार पालन करने के लिए उत्कंठित, नष्ट किए गए समग्र मिथ्यात्ववाला, मद, मान, ईर्ष्या, क्रोध अंगीकार करके हे गौतम ! विधिवत् इस अनुसार विचरण करे । सूत्र-१३७२-१३७३
पंछी की तरह कोई चीज या स्थान की ममता रहित, ज्ञान, दर्शन और चारित्र में उद्यम करनेवाला, धन, स्वजन आदि के संग रहित, घोर परिषह उपसर्गादिक को प्रकर्षरूप से जीतनेवाला, उग्र अभिग्रह प्रतिमादिक को
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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