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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक राग से बाहर जाए तो छेदोपस्थापन, अगीतार्थ या गीतार्थ को शक पैदा हो वैसे आहार, पानी, औषध, वस्त्र, दांड़ आदि अविधि से ग्रहण करे और गुरु के पास आलोचना न करे तो तीसरे व्रत का छेद, एक मास तक अवंदनीय और उसके साथ मौनव्रत रखना । आहार पानी औषध या अपने या गुरु के कार्य के लिए गाँव में, नगर में, राजधानी में, तीन मार्ग, चार मार्ग, चौराहा या सभागृह में प्रवेश करके वहाँ कथा या विकथा करने लगे तो उपस्थापन, पाँव में पग रक्षक-उपानह पहनकर वहाँ जाए तो उपस्थापन । उपानह ग्रहण करे तो उपवास, वैसा अवसर खड़ा हो और उपानह को इस्तमाल करे तो उपवास । कहीं गया, खड़ा रहा और किसी ने सवाल किया तो उसे कुशलता और मधुरता से कार्य की जरुरत जितना अल्प, अगर्वित, अतुच्छ, निर्दोष समग्र लोगों के मन को आनन्द देनेवाले, लोक और परलोक के हितकार प्रत्युत्तर न दे तो अवंदनीय, यदि अभिग्रह ग्रहण न किया हो वैसा भिक्षुक सोलह दोष रहित लेकिन सावधयुक्त वचन बोले तो उपस्थापन, ज्यादा बोले तो उपस्थापन, कषाययुक्त वचन बोले तो अवंदनीय । कषाय से उदीरत लोगों के साथ भोजन करे या रात को साथ में रहे तो एक मास तक मौनव्रत, अवंदनीय उपस्थानरूप, दूसरे किसी को कषाय का निमित्त देकर कषाय की उदीरणा करवाए, अल्प कषायवाले को कषाय की वृद्धि करवाके किसी की मर्म-गुप्त बातें खुली कर दे । इस सब में गच्छ के बाहर नीकालना।
कठोर वचन बोले तो पाँच उपवास, कठोर शब्द बोले तो पाँच उपवास, खर, कठोर, कड़े, निष्ठुर, अनिष्ट वचन बोले तो उपस्थापन, गालियाँ दे तो उपवास, क्लेश करनेवाले कलह-कंकास, तोफान लड़ाई करे तो उसे गच्छ के बाहर नीकालना । मकार, चकार, जकरादिवाली गालियाँ अपशब्द बोले तो उपवास, दूसरी बार बोले तो अवंदनीय, मारे तो संघ के बाहर नीकालना, वध करे तो संघ के बाहर नीकालना, खुदता हो, तोड़ता हो, रेंगता, लड़ता, अग्नि जलाता, दूसरों से जलाए पकाए, पकवाए, तो हरएक में संघ से बाहर करना । गुरु को भी सामने चाहे वैसे शब्द सुनाए, गच्छनायक की किसी तरह से हलकी लघुता करे, गच्छ के आचार, संघ के आचार, वंदन प्रतिक्रमण आदि मंडली के धर्म का उल्लंघन करे, अविधि से दीक्षा दे, बड़ी दीक्षा दे, अनुचित को सूत्र, अर्थ या तदुभय की प्ररूपणा करे, अविधि से सारणा-वारणा-चोयणा-पड़िचोयणा करे या विधि से सारणा-वारणा-चोयणापड़िचोयणा न करे, उन्मार्ग की ओर जानेवाले को यथाविधि से सारणादिक न करे यावत् समग्र लोक के सान्निध्य में अपने पक्ष को गुण करनेवाला, हित, वचन, कर्मपूर्वक न कहे तो हर एक में क्रमिक कुल, गण और संघ के बाहर नीकालना । बाहर करने के बाद भी वो काफी घोर वीर तप का अनुष्ठान करने में काफी अनुरागवाला हो जाए तो भी हे गौतम ! वो न देखने के लायक है, इसलिए कुल गण और संघ के बाहर किए गए उसके पास पल, आधा पल, घटी या अर्ध घटीका जितने वक्त के लिए भी न रहना ।
आँख से नजर किए बिना यानि जिस स्थान पर परठवना हो उस स्थान की दृष्टि प्रतिलेखना किए बिना ठल्ला, मातृ, बलखा, नासिक मेल, श्लेष्म, शरीर का मेल परठवे, बैठते संडासग-जोड़ सहित प्रमार्जना न करे, तो उसे क्रमिक नीवी और आयंबिल प्रायश्चित्त । पात्रा, मात्रक या किसी भी उपकरण दंड आदि जो कोई चीज स्थापन करते, रखते, लेते, ग्रहण करते, देते अविधि से स्थापन करे, रखे- ले, ग्रहण करे या दे, यह आदि अभावित क्षेत्र में करे तो चार आयंबिल और भावित क्षेत्र में उपस्थापन, दंड, रजोहरण, पादपोंछनक भीतर पहनने की सूती कपड़ा, चोलपट्टा, वर्षा कल्प कँबल यावत् मुहपत्ति या दूसरे किसी भी संयम में जरुरी ऐसे हर एक उपकरण प्रतिलेखन किए बिना, दुष्प्रतिलेखन किए हों, शास्त्र में बताए प्रमाण से कम या ज्यादा इस्तमाल करे तो हर एक स्थान में क्षपण-उपवास का प्रायश्चित्त ।
ऊपर के हिस्से में पहनने का कपड़ा, रजोहरण, दंडक अविधि से इस्तमाल करे तो उपवास, अचानक रजोहरण (कुल्हाड़ी की तरह) खंभे पर स्थापन करे तो उपस्थापन, शरीर के अंग-उपांग चंपि करवाए या दबवाए तो उपवास, रजोहरण को अनादर से पकड़ना चऊत्थं, प्रमत्त भिक्षु की लापरवाही से अचानक मुहपत्ति आदि कोई भी संयम के उपकरण गुम हो जाए, नष्ट हो तो उसके उपवास से लेकर उपस्थापन, यथायोग्य गवेषणा करके ढूँढ़े, मिच्छामि दुक्कडम् दे, न मिले तो वोसिरावे, मिले तो फिर से ग्रहण करे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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