Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, DeepratnasagarPage 95
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक त्रिफला, गुगल आदि औषधि पीनी पड़ती, हमेशा उसके सफाई करनी पड़े असाध्य, उपशम न हो, घोर भयानक दुःख से जैसे अग्नि में पकता हो वैसे कठिन दुःख भुगतते भुगतते उनको मिला हुआ मानव भव असफल हुआ। उस प्रकार हे गौतम ! सावधाचार्य का जीव चौदह राजलोक में जन्म-मरणादिक के दुःख सहकर अनन्त काल के बाद अवरविदेह में मानव के रूप में पैदा हुआ । वहाँ लोक की अनुवृत्ति से तीर्थंकर भगवंत को वंदन करने के लिए गया प्रतिबोध पाया और दीक्षा अंगीकार करके यहाँ श्री २३ वे पार्श्वनाथ तीर्थंकर के काल में सिद्धि पाई। हे गौतम ! सावधाचार्य ने इस प्रकार दुःख पाया । हे भगवंत ! इस तरह का दुस्सह घोर भयानक दुःख आ पड़ा । उन्हें भुगतना पड़ा । इतने लम्बे अरसे तक यह सभी दुःख किस निमित्त से भुगतने पड़े । हे गौतम ! उस वक्त उसने जैसे ऐसा कहा कि, उत्सर्ग और अपवाद सहित आगम बताया है । एकान्त में प्ररूपणा नहीं की जाती लेकिन अनेकान्त से प्ररूपणा करते हैं, लेकिन अपकाय का परिभोग, तेऊकाय का समारम्भ, मैथुनसेवन यह तीनों दूसरे किसी स्थान में एकान्त में या निश्चय से और दृढ़ता से या सर्वथा सर्व तरह से आत्महित के अर्थि के लिए निषेध किया है । यहाँ सूत्र का उल्लंघन किया जाए तो सम्यग् मार्ग का विनाश, उन्मार्ग का प्रकर्ष होता है, आज्ञा भंग के दोष से अनन्तसंसारी होते हैं। हे भगवंत ! क्या उस सावधाचार्य ने मैथुन सेवन किया था ? हे गौतम ! सेवन किया और सेवन नहीं किया यानि सेवन किया यह भी नहीं। और सेवन न किया ऐसा भी नहीं । हे भगवंत ! ऐसे दो तरीके से क्यों कहते हो? हे गौतम ! जो उस आर्या ने उस वक्त मस्तक से पाँव का स्पर्श किया, स्पर्श हुआ उस वक्त उसने पाँव खींचकर सिकुड़ नहीं लिया । इस वजह से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि, मैथुन सेवन किया और सेवन नहीं किया । हे भगवंत ! केवल इतनी वजह में ऐसे घोर दुःख से मुक्त कर सके वैसा बद्ध स्पृष्ट निकाचित कर्मबंध होता है क्या ? हे गौतम ! ऐसा ही है । उसमें कोई फर्क नहीं है । हे भगवंत ! उसने तीर्थंकर नामकर्म इकट्ठा किया था । एक ही भव बाकी रखा था और भवसागर पार कर दिया था । तो फिर अनन्त काल तक संसार में क्यों भटकना पड़ा? हे गौतम ! अपनी प्रमाद के दोष की वजह से । इसलिए भव विरह इच्छनेवाले शास्त्र का सद्भाव जिसने अच्छी तरह से पहचाना है ऐसे गच्छाधिपति को सर्वथा सर्व तरह से संयम स्थान में काफी अप्रमत्त बने । इस प्रकार मैं तुम्हे कहता हूँ। अध्ययन-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 95Page Navigation
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