________________
आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - १०६२
गृहस्थ संयम और तप के लिए प्रवृत्ति करनेवाला और पाप की निवृत्ति करनेवाला होता है । जब तक वो दीक्षा अंगीकार नहीं करते तब तक जो कुछ भी धर्मानुष्ठान करे उसमें उनका फायदा होता है । सूत्र-१०६३-१०६४
साधु-साध्वी के वर्ग को यहाँ समझ लेना चाहिए कि हे गौतम ! उश्वास निश्वास के अलावा दूसरी किसी भी क्रिया गुरु की परवानगी के सिवा नहि करना । वो भी जयणा से ही करने की आज्ञा है । अजयणा से नहीं । अजयणा से साँस लेने-रखने का सर्वथा नहीं होता । अजयणा से साँस लेनेवाले को तप या धर्म कहाँ से मिले? सूत्र - १०६५-१०६९
हे भगवंत ! जितना देखा हो या जाना हो तो उसका पालन उतने प्रमाण में किस तरह कर सके ? जिन्होंने अभी परमार्थ नहीं जाना, कृत्य और अकृत्य के जानकार नहीं है । वो पालन किस तरह कर सकेंगे ? हे गौतम ! केवली भगवंत एकान्त हीत वचन को कहते हैं । वो भी जीव का हाथ पकड़कर बलात्कार से धर्म नहीं करवाते । लेकिन तीर्थंकर भगवान के बताए हुए वचन को तहत्ति' कहने के लायक जो उसके अनुसार व्यवहार करते हैं, उनके चरण में हर्ष पानेवाले इन्द्र और देवता के समुदाय प्रणाम करते हैं । जिन्होंने अभी तक परमार्थ नहीं जाना, कृत्याकृत्य का विवेक नहीं पहचाना । वो अंधे के पीछे अंधा चलता जाए और गड़ा-टेकरी पानी है या भूमि है, कीचड़ है या पथ्थर है उसका भान नहीं होता । वैसे अज्ञानी को धर्म की आराधना होती है या विराधना होती है वैसी भी पहचान नहीं होती । इसलिए या तो खुद गीतार्थ-शास्त्र के जानकार हो, उसका विहार या वैसे गीतार्थ की निश्रा में, आज्ञा में रहकर विहार करने की उत्तम साधु के लिए शास्त्रकार ने अनुज्ञा दी है। इन दोनों के अलावा तीसरा विकल्प शास्त्र में नहीं है। सूत्र - १०७०-१०७१
अच्छी तरह से संवेग पाया हो, आलस रहित हो, दृढ़ व्रतवाले हो, हमेशा अस्खलित चारित्रवाले हो, रागद्वेष रहित हो, चार कषाय को उपशमाया हो, इन्द्रिय को जीतनेवाला हो, ऐसे गुणवाले जो गीतार्थ गुरु हो उनके साथ विहार करना । क्योंकि वो छद्मस्थ होने के बावजूद (श्रुत) केवली हैं। सूत्र - १०७२-१०७६
हे गौतम ! जहाँ सूक्ष्म पृथ्वीकाय के एक जीव को कीलामणा होती है तो उस को सर्वज्ञ केवली अल्पारंभ कहते हैं । जहाँ छोटे पृथ्वीकाय के एक जीव का प्राण विलय हो उसे सभी केवली महारंभ कहते हैं । एक पृथ्वीकाय के जीव को थोड़ा सा भी मसला जाए तो उससे अशातावेदनीय कर्मबंध होता है कि जो पापशल्य काफी मुश्किल से छोड़ सके । उसी प्रकार अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय और मैथुन सेवन के चीकने पापकर्म उपार्जन करते हैं । इसलिए मैथुन संकल्प पृथ्वीकाय आदि जीव विराधना दुरन्त फल देते देखकर जावज्जीव त्रिविध त्रिविध से त्यजना । सूत्र - १०७७-१०८२
इसलिए जो परमार्थ को नहीं जानते और हे गौतम ! जो अज्ञानी हैं, वो दुर्गति के पंथ को देनेवाले ऐसे पृथ्वीकाय आदि कि विराधना गीतार्थ गुरु निश्रा में रहकर संयम आराधना करनी । गीतार्थ के वचन से हलाहल झहर का पान करना । किसी भी विकल्प किए बिना उनके वचन के मुताबिक तत्काल झहर का भी भक्षण कर लेना । परमार्थ से सोचा जाए तो वो विष नहीं है । वाकई उनका वचन अमृत रस के आस्वाद समान है। इस संसार में उनके वचन के अनुसार बिना सोचे अनुसरण करनेवाला मरकर भी अमृत पाता है।
अगीतार्थ के वचन से अमृत का भी पान मत करना । परमार्थ से अगीतार्थ का वचन अमृत नहीं है लेकिन वो झहर युक्त हलाहल कालकूट विष है । उसके वचन से अजरामर नहीं बन सकते । लेकिन मरकर दुर्गति में जाते
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
Page 102