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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- ११७४-११७७
समग्र सती, शीलवंती के भीतर मैं पहली बड़ी साध्वी हूँ । रेखा समान मैं सब में अग्रेसर हूँ । उस प्रकार स्वर्ग में भी उद्घोषणा होती है। और मेरे पाँव की धूल को सब लोग वंदन करते हैं। क्योंकि उसकी रज से हर एक की शुद्धि होती है । उस प्रकार जगत में मेरी प्रसिद्धि हुई है । अब यदि मैं आलोचना हूँ । मेरा मानसिक दोष भगवंत के पास प्रकट करूँगी तो मेरे भाई, माता, पिता यह बात सुनकर दुःखी होंगे, या तो प्रमाद से किसी भी तरह से मैंने मन से चिन्तवन किया उसे मैंने आलोचन किया केवल इतना सुनकर मेरे रिश्तेदारी वर्ग को कौन-सा दुःख होगा? सूत्र - ११७८-११८२
___ जितने में इस प्रकार चिन्तवन करके आलोयणा लेने के लिए तैयार हुई, उतने में खड़ी होती थी तब पाँव के तलवे में ढ़स करके एक काँटा चुभ गया । उस वक्त निःसत्वा निराश होकर साध्वी चिन्तवन करने लगी कि अरेरे ! इस जन्म में मेरे पाँव में कभी भी काँटा नहीं लगा था तो अब इस विषय में क्या (अशुभ) होगा ? या तो मैंने परमार्थ समझा की दो चीड़ियाँ संघट्ट करती थी, उनकी मैंने अनुमोदना की उस वजह से मेरे शीलव्रत की विराधना हुई । मूंगा, बहरा, अँधा, कुष्ठी, सड़े हुए शरीरवाला, लज्जावाला हो तो वो जब तक शीलखंडन न करे तब तक देव भी उस की स्तुति करते हैं । काँटा मेरे पाँव में चुभा इस निमित्त से मुझ से जो गलती हुई है, उसका मुझे महालाभ होगा सूत्र-११८३-११८८
___ जो स्त्री मन से भी शील का खंडन करे वो पाताल के भीतर सात पुश्तों की परम्परा-शाखा में अगर सातों नारकी में जाते हैं । इस तरह की गलती मैंने क्यों की? तो अब जब तक में मुझ पर वज्र या धूल की वृष्टि न हो, मेरे दिल के सौ टुकड़े न हो जाए तो वो भी एक महा ताज्जुब माना जाएगा । दूसरा शायद मैं इसके लिए आलोचना करूँगी तो लोग ऐसा चिन्तवन करेंगे कि कुछ लोगों की पुत्री मन से इस तरह का अशुभ अध्यवसाय किया । उस वजह से मैं वैसा प्रयोग करके दूसरे ने ऐसा सोचा होगा उसे कितना प्रायश्चित्त दे । ऐसे आलोचना करूँगी, जिस से मैंने ऐसा चिन्तवन किया है वैसे दूसरे कोई न जाने । भगवंत इस दोष का जो प्रायश्चित्त देंगे वो घोर काफी निष्ठर होगा तो भी उन्होंने कहा हुआ सुनकर उतना तप करूँगा । जब तक त्रिविध त्रिविध से शल्य रहित उस तरह का सुन्दर शील और चारित्र पालन न किया जाए तब तक पाप का क्षय नहीं होता। सूत्र - ११८९-११९४
अब वो लक्ष्मण साध्वी पराये के बहाने से आलोचना ग्रहण करके तपस्या करने लगी, प्रायश्चित्त निमित्त से पचास साल तक छठ्ठ-अठ्ठम चार उपवास करके दश साल पसार किए । अपने लिए न किए हो, न करवाए हो, किसी ने साधु का संकल्प कर के भोजन तैयार न किए हो, भोजन करनेवाले गृहस्थ के घर बचा हो वैसा आहार भिक्षा में मिले उससे उपवास पूरा करे, दो साल तक भुंजेल चने आहार में ले । सोलह साल लगातार मासक्षमण तप करे । बीस साल तक आयंबिल की तपस्या करे । किसी दिन जरुरी क्रिया न छोड़ दे । प्रायश्चित्त निमित्त से दिनता रहित मन से यह सभी तपस्या करती थी, हे गौतम ! तब वो चिन्तवन करने लगी कि प्रायश्चित्त में मैंने जो तप किया उससे मेरे दिल का पाप शल्य क्या नहीं गया होगा ? कि जो मन से उस वक्त सोचा था । दूसरी तरह से प्रायश्चित्त तो मैंने ग्रहण किया है। क्या वो आचार नहीं माना जाएगा? ऐसा चिन्तवन करते हुए वो मर गई। सूत्र - ११९५-११९८
उग्र कष्टदायक घोर उग्र तप करके वो लक्ष्मण साध्वी स्वच्छंद प्रायश्चित्तपन की वजह से क्लेश युक्त परिणाम के दोष से वेश्या के घर कुत्सित कार्य करनेवाली हल्की चाकरड़ी के रूप में पैदा हुई, खंडोष्ठा उसका नाम रखा गया । काफी मीठा बोलनेवाली मद्य-घास की भारी को वहन करनेवाली सभी वेश्या का विनय करनेवाली
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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