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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-११४७-११५६
हे भगवंत ! लक्ष्मणा आर्या जो अगीतार्थ और कलुषतावाली थी और उसकी वजह से दुःख परम्परा पाई वो मैं नहीं जानता । हे गौतम ! पाँच भरत और पाँच ऐरावत् क्षेत्र के लिए उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सर्व काल में एक-एक संसार में यह अतिध्रुव चीज है । जगत् की यह स्थिति हमेशा टिकनेवाली है । हे गौतम ! मैं हूँ उस तरह सात हाथ के प्रमाणवाली कायावाले, देव और दानव से प्रणाम करे, वैसे ही अन्तिम तीर्थंकर थे । उस वक्त वहाँ जम्बुदाड़िम नाम का राजा था । कईं पुत्रवाली सरिता नाम की भार्या थी । एक भी पुत्री न होने से किसी वक्त राजा सहित पुत्री पाने के लिए देव की, कुलदेवता की, चन्द्र-सूरज ग्रह की काफी मानता की थी। कालक्रम से कमलपत्र समान नैनवाली लड़की पैदा हुई । लक्ष्मणा देवी ऐसे नाम स्थापन किया।
अब किसी वक्त लक्ष्मणा देवी पुत्री यौवनवय पाया तब स्वयंवर रचा । उसमें नयन को आनन्द देनेवाला, कला के घर समान, उत्तम वर के साथ विवाह किया । शादी के बाद तुरन्त ही उसका भर्तार मर गया । इसलिए वो एकदम मूर्छित हो गइ, बेहोश हो गई। काँपते हुए उसे स्वजन परिवार ने वींझन के पवन से मुश्किल से सभान बनाया । तब हा हा ऐसे आक्रंदन करके छाती-मस्तक कूटने लगी । वो अपने-आप को दश दिशा में मारती, कूटती, पीटती रेंगने लगी । बन्धुवर्ग ने उसे आश्वासन देकर समझाया तब कुछ दिन के बाद रुदन बन्ध करके शान्त हुई। सूत्र - ११५७-११६३
किसी वक्त भव्य जीव रूपी कमलपन को विकसित करनेवाले केवलज्ञान समान तीर्थंकर भगवंत वहाँ आए और उद्यान में समवसरे, अपने अंतःपुर, सेना और वाहन सर्व ऋद्धि सहित राजा उन्हें भक्ति से वंदन करने के लिए गया । धर्म श्रवण करके वहाँ अंतःपुर, पुत्र और पुत्री सहित दीक्षा अंगीकार की । शुभ परीणामवाले मूर्छा रहित उग्र कष्टकारी घोर दुष्कर तप करने लगा। किसी वक्त सबको गणी के योग में प्रवेश करवाया । लक्ष्मणा देवी को अस्वाध्याय की वजह से अनुष्ठान क्रिया करने के लिए न भेजा । उपाश्रय में एकान्त में बैठी लक्ष्मणा देवी साध्वी ने क्रीड़ा करते हए युगल को देखकर चिन्तवन किया कि इनका जीवन सफल है। इस चीडिया को छुनेवाली दूसरी चीडिया कि जो अपने प्रियतम को आलिंगन देकर परम आनन्द सुख देती है। सूत्र - ११६४-११६९
यहाँ तीर्थंकर भगवंत ने पुरुष और स्त्री रतिक्रीडा करते हैं तो उनको देखना हमने क्यों मना किया होगा? वो वेदना दुःख रहित होने से दूसरों का सुख नहीं पहचान सकते । अग्नि जलाने के स्वभाववाला होने के बावजूद भी आँख से उसे देखे तो देखनेवाले को नहीं जलाता । या तो ना, ना, ना, ना भगवंत ने जो आज्ञा की है वो यथार्थ ही है । वो विपरीत आड़श करेंगे ही नहीं । क्रीड़ा करते हुए पंछी युगल को देखकर मेरा मन क्षोभित हुआ है। मुझमें पुरुष की अभिलाषा प्रकट हुई है कि मैं उसके साथ मैथुन सेवन करूँ | लेकिन आज मैंने चिन्तवन किया वो मैं सपने में भी नहीं कर सकता । और फिर इस जन्म में मैंने मन से भी आज तक पुरुष की ईच्छा नहीं की। किसी भी तरह से सपने में भी उसकी अभिलाषा नहीं की, तो वाकई मैं दुराचारी पाप करने के स्वभाववाली अभागी हूँ, आड़ा-टेढ़ा झूठ सोचकर मैंने तीर्थंकर की आशातना की है। सूत्र - ११७०-११७३
तीर्थंकर भगवंत ने भी काफी कष्टकारी कठिन अति दुर्धर, उग्र, घोर मुश्किल से पालन किया जाए वैसा कठिन व्रत का उपदेश दिया है । तो त्रिविध त्रिविध से यह व्रत पालन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ? वचन और काया से अच्छी तरह से आचरण किया जाने के बाद भी तीसरे मन से रक्षा करना मुमकीन नहीं है । या तो दुःख की फिक्र की जाती है । यह तो फिर भी सुखपूर्वक किया जाता है, जो मन से भी कुशील हुआ वो सर्व कार्य में कुशील माना जाता है । तो इस विषय में शंका करके अचानक मेरे पास जो यह स्खलना होकर दोष लगा, उसका मुझे प्रायश्चित्त हुआ तो आलोचना करके जल्द उसका सेवन करूँ |
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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