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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक घर घर भटकते हुए भिक्षा की याचना करते हुए किसी तरह से उस राज्य का छिद्र और गुप्त बाते जानने की कोशीश करता है, फिर भी पता नहीं चल सकता।
उस के बाद यदि किसी तरह से जिन्दा रहा और पुण्य पांगरने लगा तो फिर देह और वेश का परावर्तन कर के वो गृह में प्रवेश करे । उस वक्त उसे तुम कौन हो? ऐसा पूछे तब वो भोजनादिक में अपना चारित्र प्रकट करे। युद्ध करने के लिए सज्ज होकर सर्व सेना वाहन और पराक्रम से टुकड़े-टुकड़े हो, वैसे लड़कर राजा को हरा दे। सूत्र - १२८९-१२९२
शायद उस राजा से पराभव हो तो कईं प्रहार लगने से गलते-बहते लहू से खरड़ित शरीरवाला हाथी, घोड़े और आयुध से व्याप्त रणभूमि में नीचे मुखवाला नीचे गिर जाए । तो हे गौतम ! उस वक्त चाहे जैसा भी दुर्लभ चीज पाने की अभिलाषा, बूरी आदत और सुकुमालपन कहाँ चला गया ? जो केवल खुद के हाथ से अपना आधा हिस्सा धोकर कभी भी भूमि पर पाँव स्थापन करने का नहीं सोचते जो दुर्बल चीज की अभिलाषावाला था । ऐसे मानवने भी ऐसी अवस्था पाई। सूत्र - १२९३-१२९७
___ यदि उसे कहा जाए कि महानुभाव धर्म कर तो प्रत्युत्तर मिले कि मैं समर्थ नहीं हूँ। तो हे गौतम ! अधन्य निर्भागी, पापकर्म करनेवाला ऐसे प्राणी को धर्मस्थान में प्रवृत्ति करने की कभी भी बुद्धि नहीं होती । वो यह धर्म एक जन्म में हो वैसा सरल कहना जैसे खाते पीते हमें सर्व होगा, तो जो जिसकी ईच्छा रखते हैं वो उनकी अनुकूलता के अनुसार धर्म प्रवेदन करना । तो व्रत-नियम किए बिना भी जीव मोक्ष की ईच्छा रखता है, वैसे प्राणी को रोष न हो, उस तरह से उनको धर्मकथन करना । लेकिन उनको मोक्ष का कथन न करना ऐसे लोगों को मोक्ष न हो और मृषावाद लगे। सूत्र - १२९८-१३०२
दूसरा तीर्थंकर भगवंत को भी राग, द्वेष, मोह, भय, स्वच्छंद व्यवहार भूतकाल में नहीं था, और भावि में होगा भी नहीं । हे गौतम ! तीर्थंकर भगवंत कभी भी मृषावाद नहीं बोलते । क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष केवलज्ञान है, पूरा जगत साक्षात् देखता है । भूत भावि, वर्तमान, पुण्य-पाप और तीन लोक में जो कुछ है वो सब उनको प्रकट है, शायद पाताल उर्ध्वमुखवाला होकर स्वर्ग में चला जाए, स्वर्ग अधोमुख होकर नीचे जाए तो भी यकीनन तीर्थंकर के वचन में फर्क नहीं आता । ज्ञान-दर्शन, चारित्र घोर काफी दुष्कर तप सद्गति का मार्ग आदि को यथास्थित प्रकटपन से प्ररूपते हैं । वरना वचन, मन या कर्म से वो तीर्थंकर नहीं है। सूत्र - १३०३-१३०४
शायद तत्काल इस भुवन का प्रलय हो तो भी वो सभी जगत के जीव, प्राणी, भूत का एकत्व हित हो उस प्रकार अनुकंपा से यथार्थ धर्म को तीर्थंकर कहते हैं । जिस धर्म को अच्छी तरह से आचरण किया जाए उसे दुर्भगता का दुःख दारिद्र रोग शोक दुर्गति का भय नहीं होता । और संताप उद्वेग भी नहीं होते। सूत्र - १३०५-१३०६
हे भगवंत ! हम ऐसा कहना नहीं चाहते कि अपनी मरजी से हम व्यवहार करते हैं । केवल इतना ही पूछते हैं कि जितना मुमकीन हो उतना वो कर सके । हे गौतम ! ऐसा करना युक्त नहीं है, वैसा पलभर भी मन से चिन्तवन करना हितावह नहीं है यदि ऐसा माने तो जानो कि उसके बल का वध किया गया है। सूत्र - १३०७-१३१०
एक मानव घी-खाण्ड की राबडी खाने के लिए समर्थ होता है । दूसरा माँस सहित मदिरा, तीसरा स्त्री के साथ खेलने के लिए शक्तिमान हो और चौथा वो भी न कर सके, दूसरा तर्क करने के पूर्व पक्ष की स्थापना करे यानि वादविवाद कर सके । दूसरा क्लेश करने के स्वभाववाला यह विवाद न कर सके । एक-दूसरे का किया हुआ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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