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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक यहाँ राजा बनकर सातवीं नारकी में गया । उस प्रकार इश्वर का जीव स्वकल्पना करने की वजह से नारक और तिर्यंच गति में और कुत्सित-अधम मानवगति में लम्बे अरसे तक भव भ्रमण करके घोर दुःख भुगतकर काफी दुःखी होनेवाला अभी गोशालकरूप हुआ है । और वो ही इस इश्वर का जीव है। इसलिए परमार्थ समझने के लिए सारासार से परिपूर्ण ऐसे शास्त्र के भाव को जल्द पहचानकर गीतार्थ मुनि बनना। सूत्र - ११३९-११४०
सारासार को पहचाने बिना अगीतार्थपन के दोष से रज्जुआर्या ने केवल एक वचन से जो पाप का उपार्जन किया, उस पाप से उस बेचारी को नारकी-तिर्यंच गति में और अधम मानवपन में जिस तरह की नियंत्रण की हैरान गति भुगतनी पड़ेगी, वो सुनकर किसे धृति प्राप्त होगी? सूत्र-११४१
हे भगवंत ! वो रज्जु आर्या कौन थी और उसने अगीतार्थपन के दोष से केवल वचन से कैसा पापकर्म उपार्जन किया कि जो विपाक सुनकर धृति न पा सके ? हे गौतम ! इसी भरतक्षेत्र में भद्र नामके आचार्य थे। उन्हें महानुभाव ऐसे पाँचसौ शिष्य और बारह सौ निर्ग्रन्थी-साध्वी थी । उस गच्छ में चौथे (आयंबिल) रसयुक्त ओसामण तीन उबालावाला हआ तीन तरह के अचित्त जल के सिवा चौथे तरह के जल का इस्तमाल नहीं होता था । किसी वक्त रज्जा नाम की आर्या को पहले किए गए अशुभ पापकर्म के उदय की वजह से कुष्ठ व्याधि से शरीर सड़ गया
और उसमें कृमि पैदा होकर उसे खाने लगी। किसी वक्त आर्या को देखकर गच्छ में रही दूसरी संयती उन्हें पूछने लगी कि-अरे अरे दुष्करकारिके ! यह तुम्हें अचानक क्या हुआ ?
तब हे गौतम ! महापापकर्मी भग्नलक्षण जन्मवाली उस रज्जा आर्याने संयतीओं को ऐसा प्रत्युत्तर दिया है, यह अचित्त जल का पान करने की वजह से यह मेरा शरीर नष्ट हुआ है । जितने में यह वचन बोली उतने में सर्व संयति के समूह के हृदय क्षोभित हुए हैं । हम भी इस अचित्त जल का पान करेंगे इससे इनकी तरह मौत मिलेगी। लेकिन उस गच्छ में से एक साध्वी ने चिन्तवन किया कि-शायद यह मेरा शरीर एक पलक जितने अल्प समय में ही सड़ जाए और सड़कर टुकड़े-टुकड़े हो जाए तो भी सचित्त जल का पान इस जन्म में कभी नहीं करूँगा । अचित्त जल का त्याग नहीं करूँगा । दूसरा अचित्त जल से इस साध्वी का शरीर नष्ट हो गया है वो हकीकत क्या सत्य है ? सर्वथा यह बात सत्य नहीं है । क्योंकि पूर्वभव में किए गए अशुभ पापकर्म के उदय से ही ऐसा होता है । उस प्रकार काफी सुन्दर सोच करने लगी । अरे ! देखो तो सही कि अज्ञान दोष से आवरित काफी मूढ़ हृदयवाली लज्जा रहित होकर यह महापाप-कर्मणी साध्वीने संसार के घोर दुःख देनेवाले ऐसा-कैसा दुष्ट वचन कहा ? कि मेरे कान ने विवर में भी प्रवेश नहीं कर सकता । तो भवान्तर में किए गए अशुभ पापकर्म के उदय की वजह से जो कुछ दरिद्रता, दुर्भाग्य, अपयश, झूठे कलंक लगना कुष्ठादिक व्याधि के क्लेश के दुःख शरीर में लगना, आदि पैदा होते हैं। उसमें कोई फर्क नहीं होता। क्योंकि आगम में कहा है किसूत्र-११४२
'खुद के उपार्जन किए हुए दुःख या सुख कौन किसको दे सकता है या ले सकता है ? खुद के किया हुआ कर्म कौन हर सकता है और किसका कर्म हरण कर सकते हैं ? खुद के किए हुए कर्म और उपार्जित किए गए सुख या दुःख तो खुद ही भुगतने पड़े।' सूत्र-११४३
ऐसा सोचते हुए उस साध्वीजी को केवलज्ञान पैदा हुआ । उस वक्त देव ने केवलज्ञान का महोत्सव किया । वो केवली साध्वीजी ने मानव, देव, असुर के और साध्वी के संशयरूप अंधकार के पड़ल को दूर किया । उसके बाद भक्ति से भरपूर हृदयवाली रज्जा आर्या ने प्रणाम करके सवाल पूछा कि-हे भगवंत ! किस वजह से मुझे इतनी बड़ी महावेदनावाला व्याधि पैदा हुआ ? तब हे गौतम ! जलवाले मेघ और दुंदुभि के शब्द समान मनोहर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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