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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक हैं । मार्ग में सफर करनेवाले को चीर विघ्न करवाते हैं उस प्रकार मोक्षमार्ग की सफर करनेवाले के लिए अगीतार्थ
और कुशील का समागम विघ्न करवानेवाला है, इसलिए उनके संघ का दूर से त्याग करना। सूत्र - १०८३-१०८४
धगधगते अग्नि को देखकर उसमें प्रवेश निःशंकपन से करना और खुद का जल मरना अच्छा । लेकिन कभी भी कुसील के समागम के न जाना या उसका शरण मत अपनाना । लाख साल तक शूली में बींधकर सुख से रहना अच्छा है । लेकिन अगीतार्थ के साथ एक पल भी वास मत करना । सूत्र - १०८५-१०८७
मंत्र, तंत्र रहित हो और भयानक दृष्टिविष साँप उँसता हो, उसका आश्रय भले ही करना लेकिन अगीतार्थ और कुशील अधर्म का सहवास मत करना । हलाहल झहर खा लेना, क्योंकि उसी वक्त एक बार मार डालेंगे लेकिन गलती से भी अगीतार्थ का संसर्ग मत करना, क्योंकि उससे लाख मरण उपार्जन करूँगा । घोर रूपवाले भयानक ऐसे शेर, वाघ या पिशाच नीगल जाए तो नष्ट होना लेकिन अगीतार्थ का संसर्ग मत करना। सूत्र-१०८८-१०८९
सात जन्मान्तर के शत्रु को सगा भाई मानना, लेकिन व्रत-नियम की विडम्बना करनेवाले पिता हो तो भी उसे शत्रु समान मानना । भड़भड़-अग्नि में प्रवेश करना अच्छा है लेकिन सूक्ष्म भी नियम की विराधना करनी अच्छी नहीं है । सुविशुद्ध नियमयुक्त कर्मवाली मौत सुन्दर है लेकिन नियम तोड़कर जीना अच्छा नहीं है। सूत्र-१०९०-१०९४
हे गौतम ! किसी दूसरी चौबीस के पहले तीर्थंकर भगवंत का जब विधिवत् निर्वाण हुआ तब मनोहर निर्वाण महोत्सव प्रवर्तता था और सुन्दर रूपवाले देव और असुर नीचे उतरते थे और ऊपर चड़ते थे। तब पास में रहनेवाले लोग यह देखकर सोचने लगे कि अरे ! आज मानव लोक में ताज्जुब देखते हैं । किसी वक्त भी कहीं भी ऐसी इन्द्रजाल-सपना देखने में नहीं आया। सूत्र-१०९५-११०२
ऐसा सोचते-सोचते एक मानव को पूर्वभव का जाति स्मरण ज्ञान हुआ । इसलिए पलभर मू हुआ लेकिन फिर वायरे से आश्वासन मिला । भान में आने के बाद थरथर काँपने लगा और लम्बे अरसे तक अपनी आत्मा की काफी नींदा करने लगा । तुरन्त ही मुनिपन अंगीकार करने के लिए उद्यत हुआ । उसके बाद वो महायश वाला पंचमुष्टिक लोच करा जितने में शुरु करता है उतने में देवता ने विनयपूर्वक उसे रजोहरण अर्पण किया । उस के कष्टकारी उग्र तप और चारित्र देखकर और लोगों को उसकी पूजा करते देखकर इश्वर जितने में वहाँ आकर उसे पूछने लगा कि तुम्हें किसने दीक्षा दी ? कहाँ पैदा हुए हो ? तुम्हारा कुल कौन-सा है ? किसके चरणकमल में अतिशयवाले सूत्र और मतलब का तुमने अध्ययन किया ? वो हर एक बुद्ध उसे जितने में सर्प जाति, कुल, दीक्षा, सूत्र, अर्थ आदि जिस प्रकार प्राप्त किए वो कहते थे उतने में वो सर्व हकीकत सुनकर निर्भागी वो इस प्रकार चिन्तवन करने लगा कि यह अलग है, यह अनार्य लोग दिखावे से ठगते हैं तो जैसा यह बोलते हैं उसी तरह का वो जिनवर भी होगा । इस विषय में कुछ सोचने का नहीं है । ऐसा मानकर दीर्घकाल तक मौन खडा रहा। सूत्र - ११०३-११०४
या फिर ऐसा नहीं देव और दानव से प्रणाम किए गए वो भगवंत यदि मेरे मन में रहे संशय का छेदन करे तो मुझे यकीन हो । उतने में फिर चिन्तवन किया कि जो होना है वो हो, मुझे यहाँ सोचने का क्या प्रयोजन है । मैं तो सर्व दुःख को नष्ट करनेवाली प्रव्रज्या को अभिनन्दन देता हूँ । यानि उसे ग्रहण करने की ईच्छा रखता हूँ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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