Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

Previous | Next

Page 96
________________ आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-६-गीतार्थविहार सूत्र-८४५ हे भगवंत ! जो रात-दिन सिद्धांत सूत्र पढ़े, श्रवण करे, व्याख्यान करे, सतत चिन्तन करे वो क्या अनाचार आचरण करे? हे गौतम ! सिद्धान्त में रहे एक भी शब्द जो जानते हैं, वो मरणान्ते भी अनाचार सेवन न करे । सूत्र-८४६ हे भगवंत ! तो दश पूर्वी महाप्रज्ञावाले नंदिषण ने प्रव्रज्या का त्याग करके क्यों गणिका के घर में प्रवेश किया ? ऐसा कहा जाता है कि हे गौतम ! सूत्र-८४७-८५२ उसे भोगफल स्खलना की वजह हुई । वो हकीकत प्रसिद्ध है। फिर भी भव के भय से काँपता था । और उसके बाद जल्द दीक्षा अंगीकार की । शायद पाताल ऊंचे मुखवाला हो, स्वर्ग नीचे मुखवाला हो तो भी केवली ने कहा वचन कभी भी अन्यथा नहीं होता । दूसरा उसने संयम की रक्षा के लिए काफी उपाय किया, शास्त्र अनुसार सोचकर गुरु के चरणकमल में लिंग-वेश अर्पण करके कोई न पहचाने वैसे देश में चला गया। उस वचन का स्मरण करते हुए अपने चारित्र, मोहनीय कर्म के उदय में सर्व, विरति, महाव्रत का भंग और बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित ऐसे कर्म का भोगफल भुगतता था । हे भगवंत ! शास्त्र में निरुपण किए ऐसे उसने कौन-से उपाय सोचे कि ऐसा सुन्दर श्रमणपन छोड़कर आज भी वो प्राण धारण करता है ? हे गौतम ! केवली प्ररूपित उपाय को बतानेवाले सूत्र का स्मरण करेंगे या विषय से पराभवित मनि इस सत्र को याद करे। सूत्र-८५३-८५५ जब विषय उदय में आए तब काफी दुष्कर, घोर ऐसे तरह का आँठ गुना तप शुरु करे । किसी रात को विषय रोकने में समर्थ न हो सके तो पर्वत पर से भृगुपात करे, काँटेवाले आसन पर बैठे, विषपान करे, उबंधन करके फाँसी चड़कर मर जाना बेहतर है, लेकिन महाव्रत या चारित्र की ली गई प्रतिज्ञा का भंग न करे । विराधना करना उचित नहीं है। शायद यह किए गए उपाय करने में समर्थ न हो तो गुरु को वेश समर्पण करके ऐसे विदेश में चला जाए कि जहाँ के समाचार परिचित क्षेत्र में न आए, अणुव्रत का यथाशक्ति पालन करना कि जिससे भावि में निर्ध्वंसाता न पाए। सूत्र-८५६-८६४ हे गौतम ! नंदिषेण ने जब पर्वत पर से गिरने का आरम्भ किया तब आकाश में से ऐसी वाणी सुनाइ दी कि पर्वत से गिरने के बाद भी मौत नहीं मिलेगी । जितने में दिशामुख की ओर देखा तो एक चारण मुनि दिखाइ दिए । तो उन्होंने कहा कि तुम्हारी अकाल मौत नहीं होगी । तो फिर विषम झहर खाने के लिए गया । तब भी विषय का दर्द न सहा जाने पर काफी दर्द होने लगा, तब उसे फिक्र लगी कि अब मेरे जीने का क्या प्रयोजन ? मोगरे के पुष्प और चन्द्र समान निर्मल, उज्ज्वल वर्णवाले इस प्रभु के शासन को वाकई पापमतिवाला मैं उड्डाहणा करवाऊंगा तो अनार्य ऐसा मैं कहाँ जाऊंगा? या फिर चन्द्र लांछनवाला है, मोगरे के पुष्प की प्रभा अल्पकाल में मुझानेवाली है, जब कि जिनशासन तो कलिकाल की कलुषता के मल और कलंक से सर्वथा रहित लम्बे अरसे तक जिसकी प्रभा टिकनेवाली है, इसलिए समग्र दारिद्र्य, दुःख और क्लेश का क्षय करनेवाले इस तरह के इस जैन प्रवचन की अपभ्राजना करवाऊंगा तो फिर कहाँ जाकर अपने आत्मा की शुद्धि करूँगा ? दुःख से करके गमन किया जाए, बड़ी-बड़ी शिलाए हो, जिसकी बड़ी खदान हो, वो पर्वत पर चड़कर जितने में विषयाधीन होकर मैं सहज भी शासन की उड्डाह न करूँ उसके पहले छलांग लगाकर मेरे शरीर के टुकड़े कर दूँ। उस प्रकार फिर से छेदित शिखरवाले महापर्वत पर चड़कर आगार रखे बिना पच्चखाण करने लगे । तब मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 96

Loading...

Page Navigation
1 ... 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151